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श्रीपाल - चरित्र
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रम्भा है। उसका नाम गुणसुन्दरी है। वह चौसठ कलाओं में पारंगत है। राग-रागिणी और ताल, स्वर आदि का उसे विशेष ज्ञान है। इसी से जब वह वीणा बजाती, तब औरों की कौन कहे, स्वयं ब्रह्मा भी आठों कान स्थिर कर उसे सुनने लगते हैं। राजकुमारी बड़ी समझदार है । वह जानती है, कि स्त्री चाहे जितनी पढ़ी लिखी हो, चाहे जितनी चतुर हो; किन्तु उसका जीवन तभी सार्थक हो सकता है, जब कि उसे वैसा ही चतुर पति मिले। यदि बिना जाने - बूझे, बिना देखे - सुने, किसी पुरुष से किसी स्त्री का विवाह कर दिया जाय और फिर उसे मूर्ख पति मिलने के कारण आजन्म दुःखमय जीवन व्यतीत करना पड़े, अतः वह ईश्वर से यही प्रार्थना किया करती कि मूर्खों का संग कभी न हो ।
कीजिये ।
रुष्ट हो गुणवान् पर, जो चाहिये सो किन्तु मूर्खों का कभी मत संग भगवान् दीजिये । ।" अपने इन विचारों के कारण उसने प्रतिज्ञा की है कि जो वीणा बजाने में मुझे पराजित करेगा, वही मेरा पति होगा । उसकी इस प्रतिज्ञा की बात, चारों ओर दूर देशान्तरों में भी फैल गयी है। फलतः अनेक राजकुमारों ने उसे जीतने के लिये वीणा बजाने का अभ्यास करना आरम्भ किया है। उसी नगर में एक गायनाचार्य रहते हैं । वे गाने-बजाने की कला में बहुत ही निपुण हैं । उनके निकट अनेक धनीमानी युवक और राज कुमार इसी विचार से शिक्षा प्राप्त कर
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