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श्रीपाल-चरित्र बैठते ही धवल सेठ को दृष्टि थगीधर के आसन पर बैठे हुए श्रीपाल कुमार पर जा पड़ी। उन्हें देखते ही वह मानों सूख गया। काटो तो लहू नहीं-ऐसी हालत हो गयी। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से उल्लू की आँखें बन्द हो जाती हैं, उसी प्रकार श्रीपाल को देखकर धवल सेठ की आखें बन्द हो गयीं। उसका पापी हृदय टूक-टूक हुआ जाता था, किन्तु क्या करें, इस समय कोई उपाय न था। राजा ने श्रीपाल के हाथ से उसे पान दिलाये। इस समय उन्हें देखकर धवल सेठ ने अच्छी तरह इतमिनान कर लिया, कि उसकी आँखें उसे धोखा तो नहीं दे रही हैं? श्रीपालने भी धवल सेठको तुरन्त ही पहचान लिया, किन्तु वे बड़े ही गम्भीर थे। उनके चेहरे पर रञ्चमात्र भी किसी नवीन भाव की झलक न दिखाई दी।
श्रीपाल को देखकर धवल सेठ को बड़ा ही अफसोस हुआ। वह मन-ही-मन कहने लगाः-“अहो, जिसे मैंने अपनी राहका काँटा समझा, समूल नष्ट कर दिया था, फिर भी वह अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है। अब तो बिना इसका सर्वनाश किये, मैं हरगिज सुखी नहीं हो सकता।” जिस समय धवल सेठ इस तरह की बातें सोच रहा था, उसी समय राजाने सभा विसर्जित कर दी। धवल सेठ भी सभा भवन से बाहर निकल आया।
बाहर निकलते ही उसने एक द्वार-पालसे श्रीपाल का परिचय पूछा। द्वार-पाल ने कहा:-"महाराज! इस
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