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दसवाँ परिच्छेद
चक्रेश्वरी देवी के कथनानुसार धवल सेठ को कई दिनों तक कुछ भी न दिखाई दिया।
किन्तु धवल सेठ ने इस घटना से भी कोई शिक्षा ग्रहण न की । वह अपने मन में कहने लगा :- "किसी न - किसी दिन तो यह मेरी बात मानने के लिये अवश्य ही बाध्य होंगी । " खैर, इस समय उनका विचार छोड़, अब वह यह सोचने लगा कि श्रीपाल जिस समय समुद्र में गिरे थे, उस समय दक्षिण ओर की हवा चल रही थी, इसलिये वह यदि जीते बचे होंगे, तो दक्षिण की ओर गये होंगे। अतः उस तरफ न जाकर उत्तर की ओर चलना चाहिये । यह सोच कर उसने अपने नाविकों को उत्तर की ओर चलने की आज्ञा दी ; किन्तु हवा ऐसी उल्टी चल रही थी, कि हजार माथा मारने पर भी नोकायें उस ओर को चलायी जा सकीं । अन्त में लाचार हो, उन्हें दक्षिण की ही ओर अग्रसर होना पड़ा। कुछ ही दिनों में वे लोग कोकण देश के तटपर आ पहुँचे । धवल सेठ ने उस प्रदेश के एक विशाल घाट पर अपनी नौकायें खड़ी करवा दीं। अनन्तर वह प्रथानुसार भेंट की सामग्री ले, राजा की सेवा में उपस्थित हुआ।
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बहुमूल्य वस्तुओं के साथ धवल सेठ को उपस्थित देख, राजा ने उसका बहुत ही सत्कार किया और उसे अपनी दाहिनी ओर एक बहुत ही उत्तम आसन पर बैठाया ।
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