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श्रीपाल-चरित्र आने दिया। अधिकाँश समय श्रीपाल उसे अपने साथ रखते, व्यापारादि के सम्बन्ध में उसे सलाह देते। किसी बात में भी जुदाई न दिखाते, किन्तु धवल सेठ के मनोविचार में जरा भी परिवर्तन न हुआ। वह पहले की ही तरह श्रीपाल की बुराई सोचता और उनका सर्वनाश करने की ही चिन्ता में रात-दिन लगा रहता था।
अब धवल के पाप का घड़ा लबालब भर गया था। 'विनाश काले विपरीत बुद्धिः' इस लोकोक्ति के अनुसार अन्त में उसकी बुद्धि एकदम ही भ्रष्ट हो गयी। उसने सोचा कि चाहे जैसे हो, श्रीपाल को परलोक का रास्ता दिखा देना चाहिये। निदान, उसने श्रीपाल के महल में प्रवेश कर रात को उनकी हत्या कर डालना स्थिर किया, किन्तु यह काम सहज न था। श्रीपाल कुमार महल के सातवें खण्ड में सोया करते थे। अतः उतना ऊँचे पहुँचना ही बड़ा मुश्किल था। बहुत कुछ सोच-विचार करने के बाद उसने गोह के सहारे ऊपर चढ़ना स्थिर किया। वह उसी दिन बाजार से एक बढ़िया गोह और रेशम की डोरी खरीद लाया। उस दिन बड़ी मुश्किल से रात बीती। एक क्षण भी एक-एक युग की तरह बीत रहा था। रात को श्रीपाल कुमार यथानियम अपने महल में सो रहे थे। आधी रात के समय धवल सेठ पहरेदारों से अपने को बचाता हुआ, महल के समीप पहुँचा। पहुँचते ही उसने गोह की कमर में वह रेशमी डोरी बाँध, उसे ऊपर फेंक
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