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श्रीपाल-चरित्र
धवल सेठ ने कहा :-“मैं एक लाख स्वर्ण मुद्रायें आपके चरणों पर रख सकता हूँ; किन्तु जैसे हो वैसे इस विपत्ति से छुटकारा मिलना चालिये।" ।
लक्ष्मी उपार्जन करना ही श्रीपाल का प्रधान उद्देश्य था। इसीलिये वे परदेश आये थे। उन्होंने यह अवसर हाथ से खोना उचित न समझा। धवल सेठ की बात स्वीकार कर वे उसी समय समुद्र-तट पर जा पहुंचे। परिस्थिति का निरीक्षण करने के बाद वे सबसे बड़ी नौका पर गये। वहाँ खड़े हो सिद्ध चक्र का ध्यान कर सिंहनाद किया। सिंहनाद सुनते ही जिस दुष्ट देवी ने नौकायें रोक रक्खी थी, वह भाग खड़ी हुई
और नौकायें चलने लगीं। यह देखकर धवल सेठ के आनन्द का पारावार न रहा।
अब धवल सेठ अपने मन में सोचने लगा कि :यह नर-रत्न किसी तरह साथ ही रहे तो अपनी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो सकती है। यह सोच कर उसने एक लक्ष स्वर्ण-मुद्रायें कुमार के चरणों में भेटकर कहा :--"हे महापुरुष! मैं चाहता हूँ कि इस यात्रा में आप भी मेरे साथ रहें। मेरे पास दस हजार सैनिक हैं। प्रत्येक को हर साल एक हजार रुपये देता हूँ, किन्तु यदि आप मेरे साथ रहना स्वीकार करें, तो मैं आपको जितना कहें, उतना धन दे सकता हूँ।”
श्रीपाल ने कहा :-“मैं सहर्ष आपके साथ चल सकता हूँ; किन्तु आप अपने दस हजार सैनिकों को जितना वेतन देते
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