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सातवाँ परिच्छेद
रत्नद्वीप की ओर प्रस्थान राजा महाकाल ने श्रीपाल के लिये एक बहुत बड़ी नौका तैयार करायी। उस नौका में उसने अपरिमित धनराशि और रत्नादिक रखवा दिये। अपनी पुत्री को और भी नानाप्रकार की चीजें भेंट दीं। चलते समय उसने उसे बहुत सा हितोपदेश दिया। पश्चात् मंगल-बाजों के साथ सब लोग राज-कन्या और श्रीपाल को समुद्रतट तक पहुँचाने गये। प्रेम के कारण वहाँ सबकी आँखों में आँसू आ गये। श्रीपाल और राज-कन्या ने सबसे विदा ग्रहण कर नौका पर स्थान ग्रहण किया। आँसू बहाते हुए लोगों ने उन्हें बिदा किया। नाविकों ने लंगर उठाये। नौकायें वायु-वेग से रत्नद्वीप की ओर चल पड़ीं।
श्रीपाल की नौका में आमोद-प्रमोद के साधनों की कमी न थी। पूरा राजसी ठाठ था। नौकापर नाटक अभिनीत हो रहे थे और श्रीपाल मदनसेना के साथ एक झरोखे से अभिनय देखते हुए चले जा रहे थे। धवल सेठ को यह सब देख-देख कर, नाना प्रकार के विचार उत्पन्न होते थे। वह अपने मन में सोचता था कि यात्रा तो श्रीपाल की ही सफल हुई। मैं तो व्यर्थ ही बेगार कर रहा हूँ। बब्बर कुल में हमलोग सामान
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