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दसवाँ परिच्छेद
चक्रेश्वरी देवी का आविर्भाव इधर श्रीपाल ससुराल में सुखोपभोग कर रहे थे, उधर समुद्र में धवल सेठ मारे आनन्द के फूला न समाता था। नाम धवल सेठ होने पर भी उसका हृदय बहुत ही कलुषित था। श्रीपाल को समुद्र में ढकेल देनेपर उसे अत्यधिक आनन्द हुआ। उसे कभी इस तरह की कल्पना भी न थी, कि यह कार्य इतनी आसानी से सिद्ध हो जायेगी। श्रीपाल की समस्त सम्पत्ति और उनकी दो रानियों का, अपने आपको अधिकारी समझ, वह मनही-मन आनन्द मनाने लगा। वह कहने लगा:- “इस संसार में मुझसे बढ़कर कोई भाग्यशाली नहीं। दैव ही मुझपर प्रसन्न मालूम होता है। खैर, अब इन दोनों सुन्दरियों को वश करना चाहिये। बिना राजी किये बलात् प्रेम न हो सकेगा। यदि बलात् सम्बन्ध किया जायेगा, तो आनन्द भी मिलना असम्भव है। उन्हें वश करने के लिये पहले उनके प्रति कृत्रिम सहानुभूति प्रकट करनी होगी। उनके दुःख से दुःखी होने का ढोंग करना होगा। पश्चात् मीठीमीठी बातें बनाकर उन्हें अपने हाथ में कर सकेंगे।"
इस समय धवल सेठ का हृदय मारे खुशी के नाच रहा था। फिर भी रानियों को दिखलाने के लिये वह फूट
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