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सातवाँ परिच्छेद तो बहुत ही दुःख की बात होगी। मणि और काञ्चन का ही योग होना चाहिये। काँच और काञ्चन नहीं।"
जिस समय राजा के मन में यह विचार आये, उसी समय राज-कुमारी आँगी का कार्य पूर्ण कर बाहर निकल रही थी, किन्तु वह ज्यों ही बाहर निकल रही थी, त्योंही अकस्मात् गर्भ-द्वार के किवाड़ बन्द हो गये। उन्हें खोलने के लिये उसने बड़ी चेष्टा की, लेकिन खुलने की कौन कहे, वे टस-से-मस भी न हुए। यह देखकर राजकुमारी अपने मन में सोचने लगी कि :- “प्रमाद के कारण मुझसे अवश्य कोई बड़ी भारी आशातना हो गयी है। उसी से मुझे यह दण्ड मिला है।” वह कहने लगी :-“हे प्रभो! यदि मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो क्षमा कीजिये। मैं अभी नादान हूँ। बच्चे तो अपराध किया ही करते हैं परन्तु माता-पिता उनकी ओर ध्यान नहीं देते। हे भगवन् ! आपने मुझपर इतनी अकृपा क्यों की ?"
राज कुमारी को इस प्रकार दुःखित होते देख, राजा ने कहा :- “पुत्री ! इसमें तेरा कोई अपराध नहीं है। सारा अपराध मेरा ही है। मैंने तेरा कौशल्य देखकर मन-हीमन तेरे लिये पति की चिन्ता की। इसी आशातना के होने से द्वार बन्द हो गये। भगवान वीतराग हैं-राग द्वेष रहित हैं। अतएव वे तो क्रोध कर ही नहीं सकते, किन्तु किसी
अधिष्ठायक देव ने मुझे यह दण्ड दिया है। खैर, कुछ भी हो अब मैं भी प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक यह द्वार न खुलेगे, तब तक यहाँ से न हटूंगा।"
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