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श्रीपाल-चरित्र होकर लौट आये, किन्तु न तो मन्दिर के किवाड़ ही खुले, न किसी को देव-प्रतिमा के ही दर्शन हुए!
अन्तमें श्रीपाल की बारी आयी। श्रीपाल ने स्नान कर पवित्र वस्त्र धारण किये। पूजन की सामग्री ले, मुखकोश बाँध कर सविनय मन्दिर में प्रवेश किया। अन्तर्द्वार के निकट पहुँचते ही मन्दिर के किवाड़ खुल गये। इस घटना से चारों
ओर आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ा। आकाश से देवताओं ने पुष्प-वृष्टि की। उपस्थित जन-समुदाय जय-जयकार करने लगा। तुरन्त ही यह शुभ-समाचार राजा को पहुंचाया गया। राजा ने जब यह सुना कि रत्नमञ्जूषा का पति आ पहुँचा है
और उसकी दृष्टि पड़ते ही मन्दिर के किवाड़ खुल गये, तब उसे बहुत ही आनन्द हुआ। वह उसी समय सपरिवार जिनमन्दिर की ओर रवाना हुआ।
जिस समय राजा कनककेतु जिन-मन्दिर में पहुँचा, उस समय श्रीपाल जिन-पूजा कर रहे थे। पहले द्रव्यपूजा कर फिर भाव-पूजा की। अनन्तर चैत्यवन्दन एवं स्तुति कर जब वह रंग-मण्डप में आये, तब राजा ने परिजनों सहित उन्हें प्रणाम कर उनका स्वागत किया। इसके बाद मन्दिरके किवाड़ खोलने के लिये कृतज्ञता प्रकट कर राजाने श्रीपाल से उनके कुल और वंश आदि का परिचय पूछा; परन्तु कुमार अपने मुँह से क्यों कोई बात कहने लगे? वे मौन ही रहे। उत्तम पुरुष कदापि अपने मुँह से आत्मप्रशंसा नहीं करते।
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