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श्रीपाल - चरित्र
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सम्मुख कुमार को तिलक लगाकर उनसे मदनमञ्जूषा के साथ पाणिग्रहण करने की प्रार्थना की। कुमार ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। चारों ओर इस समाचार से आनन्द व्याप्त हो गया । कुमार अपने निवास स्थान को लौट आये। दोनों ओर ब्याह की तैयारियाँ होने लगीं। शीघ्र ही शुभ मुहूर्त में कुमार ने मदनमञ्जूषा का पाणि- ग्रहण किया। राजा ने कुमार को रहने के लिये एक अच्छा स्थान प्रदान किया । कुमार अपनी दोनों रानियों के साथ वहीं मौज से रहने लगे।
चैत्र मास आनेपर नवपद की आराधना के निमित्त कुमार ने नव आयम्बिल किये। जिन मन्दिर में अट्ठाई महोत्सव किया। चारों ओर अमारीपटह बजवाया और भली-भाँति सिद्ध चक्र की उपासना की ।
एक दिन राजा और श्रीपालकुमार जिनमन्दिर में प्रभुस्तुति कर रहे थे। इसी समय कोतवाल आया । उसने राजा से निवेदन किया, – “महाराज ! हम लोग एक बड़े भारी अपराधी को पकड़ लाये हैं। उसने आपकी अवज्ञा कर, जकात देने से इन्कार किया । माँगने पर वह लड़ने को तैयार हुआ । इसलिये हम लोगों ने भी उसे गिरफ्तार कर लिया है कहिये, उसे क्या दण्ड दिया जाय ?"
राजाने कहा :- "कर न देना और चोरी करना एक समान है। अतएव जो सजा चोर को दी जाती है, वही इसे भी देनी चाहिये। इसके लिये प्राण- दण्ड ही उपयुक्त दण्ड है ।"
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