________________
श्रीपाल-चरित्र
७१
धवल सेठकी यह बात सुन श्रीपाल ने राजा से सारा हाल निवेदन कर, बिदा माँगी। राजा को इससे बहुत ही दुःख हुआ, किन्तु उसने सोचा, कि मंगनी की चीज पर मोह रखना व्यर्थ है। परदेशी का प्रेम अन्त में दुखदायी सिद्ध होता है। यह सोचकर वह उन्हें बिदा करने की तैयारी करने लगा। पश्चात् उसने श्रीपाल से कहा :- “कुमार ! हम लोगों ने मदनमञ्जूषा को बड़े प्रेम से पाल-पोल कर बड़ा किया है। दुःख किसे कहते हैं, यह वह जानती ही नहीं। इसलिये उसे अपनी छत्रछाया में जहाँ तक हो सके सुख पहुँचाने की चेष्टा करना। अब अपना यह कन्याधन हम आपके हाथों में रखते हैं। यदि आप अन्यान्य स्त्रियों से ब्याह करें, तब भी किसी प्रकार इसके जी को दुःखित न करें। यही हमारा निवेदन है। यही हमारी प्रार्थना और यही हमारी आन्तरिक इच्छा है।"
तदन्तर राजा-रानी ने मदनमञ्जूषा को उपदेश देते हुए कहा :-“हे पुत्री ! पति को ही अपना आराध्य देव समझना। हृदय में क्षमा वृत्ति को स्थान देना। सास, ससुर, जेठ आदि बड़े-बूढ़ों का आदर करना, अभिमान छोड़ कर हमारे कुल की कार्ति बढ़ाना। पति के सोने के बाद सोना। उठने के पहले उठना । सौतों को बहिन समझना। उनकी बात मानना। पति के समस्त परिवार को खिलाने के बाद खाना। दासदासी और पशुओं की यत्न-पूर्वक रक्षा करना। जिन-पूजा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org