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सातवाँ परिच्छेद लेने उतरे, तो वहाँ मुझ पर आफत आयी; किन्तु श्रीपाल एक राज-कन्या और मेरी आधी सम्पत्ति का अधिकारी हो गयी। मेरा उसके पास कुछ भाड़ा पावना है। क्या करूँ? मांगू या न माँग? मांगने पर भी वह देगा या नहीं?
श्रीपालकुमार को धवल सेठ के इन संकीर्ण विचारों का जब पता चला, तब उन्होंने धवल सेठको बुलाकर, उसका जितना भाड़ा निकलता था, उससे दस गुनी रकम चुका दी। धवल सेठ को यह देख कर बड़ा ही आश्चर्य हुआ।
कुछ दिनों के बाद सब लोग रत्नद्वीप जा पहुँचे। लंगर डालकर नौकाएँ खड़ी कर दी गयीं। सब लोग नौकाओं से उतर पड़े। कर जकात चुकाकर सब माल गोदामों में रखवा दिया गया। श्रीपाल ने समुद्र के तट पर ही अपना सुनहला तम्बू खड़ा करवाया। उस तम्बूमें वे एक राजा की तरह रहने लगे। नित्य ही नाटक आदि आमोद-प्रमोद होते रहे। इस तरह कुमार के दिन बड़े ही आनन्द से व्यतीत होने लगे।
एक दिन धवल सेठ ने श्रीपाल के पास आकर कहा :"इस समय हम लोगों की चीजों के दाम बहुत अच्छे मिल रहे हैं। आप अपना माल बेचते क्यों नहीं?" श्रीपालने कहा :'यह काम आप ही कीजिये।' धवल सेठ को यह सुनकर बहुत ही आनन्द हुआ ; क्योंकि यह उसी के लाभ की बात थी। श्रीपाल के आदेशानुसार वह अपने माल के साथ-साथ उनके मालकी भी निकासी करने लगा।
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