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पाँचवाँ परिच्छेद चित्त की स्थिरता के विद्या का सिद्ध होना भी असम्भव है। अतः मैं चाहता हूँ कि आप मेरे लिये थोड़ा सा कष्ट उठा कर उत्तर-साधक होना स्वीकार करें।"
कुमार ने तुरन्त ही यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे कहने लगे :- “आप स्थिर चित्त से विद्या-साधन कीजिये जबतक मैं उत्तर-साधक रहँगा, तब तक किसी की मजाल नहीं कि आपके कार्य में किसी प्रकार की बाधा दे सके।"
अब कुमार की सहायता से वह साधक, विद्या की साधना करने लगा। इस बार बहुत ही अल्प समय में वह विद्या सिद्ध हो गयी। इसके प्रतिफल स्वरूप उस विद्याधर ने श्रीपाल को आग्रह पूर्वक दो औषधियाँ प्रदान की। एक का नाम था जल तरणी और दूसरी का नाम था शस्त्रघातनिवारणी यह दोनों चीजें श्रीपाल के लिये आगे चलकर बहुत ही उपयोगी प्रमाणित हुई।
विद्या सिद्धि हो जाने पर विद्याधर और श्रीपाल उस स्थान से चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक धातुर्वादी मिला। वह विद्याधर की बतलायी हुई विधि के अनुसार रस सिद्ध कर रहा था। विद्याधर को देखते ही उसने कहा :- “आपकी बतलायी हुई विधि के अनुसार रस सिद्ध करने की बड़ी चेष्टा की; पर रस सिद्ध नहीं होता।” श्रीपाल ने कहा :“अच्छा, अब एक बार मेरे सामने चेष्टा कीजिये।” तदनुसार श्रीपाल के सम्मुख कार्यारम्भ करने पर तुरन्त ही रस सिद्ध
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