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श्रीपाल-चरित्र
कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम लोगों में जो सम्बन्ध स्थापित हो चुका है, वह मृत्यु के बाद ही भंग हो सकता है। किसकी सामर्थ्य है कि एक सती स्त्री को उसके पति से पृथक रख सके? आप इस संकोच को छोड़ दीजिये। मैं
आपकी दासी हूँ। आप मेरे नाथ हैं। मेरे प्राण हैं-मेरे जीवन धन हैं। मैं हर तरह से आपकी सेवा कर आपको आराम पहुँचाऊँगी। सुख-दुःख और रोग-शोक तो भाग्य की देन है। जो बदा होगा, वही होगा। हमें अकारण ही उसकी चिन्ता न करनी चाहिये।"
मैनासुन्दरी और उम्बर में रात भर इसी तरह की बातें होती रहीं। दोनों ने एक दूसरे के हृदय को पहचान लिया। दोनों के हृदय दाम्पत्यप्रेम से पूरित हो गये। मैनासुन्दरी के चेहरे पर दूना तेज चमकने लगा। मानो आज अनाथ से सनाथ हो गयी थी। सूर्य ने भी उदयाचल से इस सती के दर्शन कर अपने को धन्य समझा। मैनासुन्दरी को न जाने क्यों आज प्रभात बड़ा ही मनोरम प्रतीत होता था। चारों ओर उसे कछ नवीनता सी दिखायी देती थी, उसे समझ न पड़ता था कि वह स्वयं बदल गयी है। आज उसकी भावनाओं का स्रोत दूसरी ही ओर प्रवाहित हो रहा था। आज उसकी मति, गति, पति-देव के ही चरणों में, केन्द्रीभूत हो रही थी। इसी लिये आज उसे समस्त संसार बदलता हुआ दिखायी देता था।
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