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चौथा परिच्छेद
रोग से मुक्ति श्रीपाल और मैनासुन्दरी ने गुरु के आदेशानुसार आश्विन शुक्ला सप्तमी से ओली करना आरम्भ किया और गट-विगयों का त्याग कर रोज आयम्बिल करने लगे। साथ ही मैनासुन्दरी श्री अरिहन्त भगवान की अष्टप्रकारी पूजा भी करने लगी। इस प्रकार एकाग्रता पूर्वक जिन-भक्ति करने से पाप-प्रकृति का नाश होने लगा। पहले आयम्बिल में सिद्धचक्र के न्हवन से रोग का मूल नष्ट होकर अन्तर का दाह शान्त हुआ। दूसरे आयम्बिल में विरूप चमड़ा सुधर कर उसका रंग परिवर्तित होने लगा। इस प्रकार ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, त्यों-त्यों श्रीपाल की सुन्दरता बढ़ती गयी और राग शमित होता गया। जब नव आयम्बिल पूरे हुए तब समस्त व्याधियाँ दूर हो गयीं और शरीर पूर्णतः रोग मुक्त हो गया। अब श्रीपाल की कंचन-सी काया देखकर सब लोग आश्चर्य करने लगे। ___मैनासुन्दरी ने कहा :- “स्वामिन् ! यह सब गुरुदेव का ही प्रताप है। संसार में माता-पिता, बन्धु-बान्धव, स्त्री-पुत्र प्रभृति अनेक शुभचिन्तक होते हैं, किन्तु गुरु के समान
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