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पाँचवाँ परिच्छेद
विदेश - यात्रा
एक दिन सन्ध्या के समय थोड़े से चुने हुए सवारों के साथ श्रीपालकुमार शहर में घूमने निकले। इस समय उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न था । वे राजसी ठाठ से रहते थे । दासदासियाँ हुक्म जाने के लिये हाथ बाँधे खड़ी रहती थीं । पानी माँगने पर दूध मिलता था। कहने का तात्पर्य यह कि वे सब तरह से सुखी थे। ऐसी अवस्था में उनका रूपसौन्दर्य बढ़ जाना भी स्वाभाविक था । जिस समय वे घोड़े को नचाते हुए शहर की सड़कों से निकले, उस समय उज्जैन की प्रजा उन्हें देखने के लिये उमड़ पड़ी। रास्ते में मकानों की खिड़कियाँ, झरोखों और छतों में जहाँ देखिये, वहीं स्त्री पुरुषों के झुण्ड खड़े दिखायी देते थे। जब तक श्रीपाल की सवारी दूर न निकल जाती, तब तक लोग उसकी ओर टकटकी लगाये देखा करते । कहीं उनपर पुष्प बरसाये जाते थे और कहीं उनकी जय पुकारी जाती थी । समूचा शहर उस समय हर्ष और उल्लास की तरंगों में प्रवाहित हो रहा था ।
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जिस समय यह सवारी एक चौराहे पर पहुँची, उस समय दैव-योग से एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने श्रीपाल की जीवन-धारा को ही बदल दिया। श्रीपाल ने देखा कि एक बुढ़िया और उसकी कई पुत्रियाँ खड़ी हुई
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