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श्रीपाल-चरित्र "हे राजेन्द्र ! आप इतने उदास क्यों हो रहे हैं? अन्दर आइये और अपनी कन्या तथा दामाद से मिलकर हर्ष प्राप्त कीजिये। आपके दामाद सिद्धचक्र के प्रताप से रोग मुक्त हो गये हैं। उनकी सभी विपत्तियों का अन्त आ गया है।" इसके बाद उसने राजा प्रजापाल को सब बातें विस्तार-पूर्वक कह सुनायीं और सम्मान पूर्वक उसे अपने महल में लिवा ले गये।
पुण्यपाल की बातें सुन राजा प्रजापाल को बड़ा आनन्द हुआ। महल में पहुंचने पर वह श्रीपाल और मैनासुन्दरी से सहर्ष मिला। जैनधर्म की प्रशंसा करते हुए उसने मैनासुन्दरी से कहा :- “पुत्री ! तूने राज-सभा में जो बातें कही थीं, वे बिलकुल सच थीं। मैंने अज्ञानता के कारण जो बातें कहीं थीं, वे ठीक न थीं। तुझे दुःख देने में कोई कसर न रखी थी; परन्तु वही सब बातें तेरे लिये सुख का कारण हो गयीं। मुझे यह देखकर विश्वास हो गया है कि संसार में कर्म का ही प्राधान्य है। मनुष्य का सोचा हुआ कुछ नहीं होता। मैंने मूर्खतावश अपना प्रभाव दिखाने की व्यर्थ ही चेष्टा की थी। मैं अब अपनी भूल समझ गया। मुझे अपने दुष्कर्म के लिये बहुत ही पश्चात्ताप हो रहा है।”
मैनासुन्दरी ने प्रेम-पूर्वक कहा :- "पिताजी! इसमें आपका कोई दोष नहीं। संसार के प्राणी मात्र कर्म के अधीन हैं। राजा और रंक दोनों ही उसके निकट समान हैं। मेरे
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