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चौथा परिच्छेद गुरु महाराज बड़े ही ज्ञानी थे, उन्होंने मुझे सान्त्वना देते हुए कहा-“तुम्हें अब पुत्र के दुःख से दुःखित होने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे पुत्र को कोढ़ियों ने बहुत ही यत्न से रक्खा था। उन्होंने उसे अपने राजा बनाया था। उस समय उम्बर राणा के नाम से उसने यथेष्ट कीर्ति लाभ की थी! कोढ़ियों की चेष्टा और अपने सौभाग्य के कारण मालवराजा की राजकन्या से उसका विवाह भी हो गया। पत्नी के कहने से तुम्हारे पुत्र ने आयम्बिल का तप और सिद्धचक्र की आराधना की । इससे वह अब पूर्णतः रोग-मुक्त हो गया है। इस समय वह उज्जयिनी में रहता है। सिद्धचक्र के प्रताप से भविष्य में उसकी बड़ी उन्नति होगी। वह अनेक राज्य प्राप्त करेगा, और किसी समय राजाओं का राजा होगा।"
गुरु महाराज की यह बातें सुन, मुझे अत्यन्त आनन्द हुआ। मैं तुरन्त ही इस ओर चल पड़ी। यहाँ तुम्हें पाकर मुझे ऐसा आनन्द हो रहा है, जैसे कृपण को खोया हुआ धन मिल गया हो-अन्धे को आँखें मिल गयी हों!
माता की यह बातें सुन, श्रीपाल और मैनासुन्दरी को परम आनन्द हुआ। माता को साथ ले, वह अपने निवास स्थान में गये और वहाँ तीनों आनन्द पूर्वक रहने लगे।
__ एक दिन तीनों जिन-मन्दिर में दर्शन करने गये। दर्शन करने के बाद वे चैत्यवन्दन करने लगे। श्रीपाल मधुर कण्ठ से चैत्यवन्दन कर रहे थे और सास-बहू उसे प्रेमपूर्वक सुन
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