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श्रीपाल-चरित्र
पुरुष-प्रकृति स्वाभाविक ही स्त्री-सौन्दर्य पर लुब्ध रहती है। पुरुष स्वयं चाहे जैसा रोगी दोषी हो, वह सदा इस सृष्टिकानन के नारी पुष्प का रसास्वादन करने के लिये उत्कण्ठित रहता है। राणा उम्बर की यह बातें उसके महान त्याग एवं उच्च-प्रकृति की परिचायक थीं। एक पुरुष शायद ही कभी इससे बढ़कर त्याग कर सकता है। जिन लोगों ने उम्बर की यह बातें सुनीं, वे मन-ही-मन उसकी सहृदयता पर मुग्ध हो गये। उम्बर का शरीर ही दूषित था, मन नहीं। लोगों पर उसकी बातों का बहुत ही प्रभाव पड़ा; किन्तु राजा का पाषाण-हृदय टस-से-मस न हुआ। उसने कहा- “इसमें मेरा दोष नहीं। इस कन्या का अपने कर्म पर अटल विश्वास है। मैंने इसे बहुत समझाया, किन्तु इसने मेरी एक न सुनी। यदि इसके भाग्य में सुख बदा होगा, तो यह तेरे साथ भी सुखी रहेगी। मैं इस कन्या को इसके कर्मवाद के कारण यह दण्ड दे रहा हूँ। मैं यही देखना चाहता हूँ कि इसका कर्म इसे कहाँ तक सुखी बना सकता है?"
राजा का यह दुराग्रह देख सब लोग हताश हो गये। मन ही मन सब उसे भला बुरा कहने लगे, किन्तु किसी का कोई वश न था, इसलिये सब लोग चुप ही रहे। सूर्य को भी यह अनुचित कार्य देख कर इतनी ग्लानि हुई, कि वह भी अस्ताचल की ओर चले गये। रात को बिना किसी धूम-धाम के राजा ने उम्बर राणा के साथ मैनासुन्दरी का ब्याह कर दिया। अपने राजा को ऐसी सुन्दर रानी
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