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तीसरा परिच्छेद
बना रहा। वह अपने मन में कहने लगी- मुझे व्यर्थ ही क्यों शोक करना चाहिये। जो भाग्य में लिखा होगा, वही होगा । कर्म की रेख पर मेख कौन मार सकता है । फिर यह भी तो मेरा धर्म है, कि पिताजी चार जन के सामने जिसे मेरा पति नियत करें, उसे मैं तन-मन से पति रूप में ग्रहण करूँ। ऐसा न करना भी कुल - कामिनियों के लिये कलंक की एक बात हो सकती है।
यह सोच कर मैना सुन्दरी ने उत्तर दिया- पिताजी! मैं आपकी यह व्यवस्था सहर्ष अंगीकार करती हूँ । मुझे इसमें जरा भी आपत्ति या संकोच नहीं है, आपकी आज्ञा पालन करने के लिये मैं सदा तैयार हूँ।
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राज - कन्या की यह दृढ़ता और आत्म-विसर्जन देख सब लोग स्तम्भित हो गये । क्रोध के कारण राजा की बुद्धि मारी गयी थी, इसलिये उसके हृदय पर तो कोई प्रभाव न पड़ा, किन्तु इस घटना को देखकर सहृदय उम्बर राणाका हृदय काँप उठा। उसकी अन्तरात्मा पुकार उठी, कि ऐसी राज- कन्या से ब्याह कर उसका जीवन नष्ट करना भयंकर पाप है - अक्षम्य अपराध है। उसके हृदय में स्वभाविक मोह की अपेक्षा इस विवेक भावना का विशेष प्राबल्य था कि मेरे संसर्ग से इस राज कन्या का जीवन नष्ट न हो जाय । उसने राजा से कहा- राजन् ! यह अनमेल विवाह ठीक नहीं। Chah गले में रत्न- हार शोभा नहीं दे सकता। गधे की पीठ पर अम्बारी नहीं शोभ सकती। अच्छा हो कि आप इस देवकन्या सी राजकुमारी का ब्याह मेरे साथ न करें !
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