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तीसरा परिच्छेद मिली हुई देखकर, कोढ़ियों को सीमातीत आनन्द हो रहा था। वे सब राज-कन्या को साथ ले, उसी तरह हर्ष मनाते, अपने निवास स्थान को लौट आये।
राज-कन्यासे विवाह कर लेने पर भी उम्बर का विषाद अभी दूर नहीं हुआ था। उसे यह चिन्ता सता रही थी कि मेरे संसर्ग से राज-कन्या की यह कंचन जैसी काया भी नष्ट हो जायगी। उसने एकान्त-मिलन के समय मैनासुन्दरी से कहा– “हे सुन्दरी ! इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारे पिताने यह बड़ा ही अनुचित कार्य किया; परन्तु मैं वैसा अविचारी नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम एक बार अच्छी तरह से विचार कर लो, ताकि फिर पश्चात्ताप न करना पड़े। हम लोग परिणय सूत्र में बंध जाने पर भी, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम आजीवन मुझसे पृथक् रह सकती हो। इसमें किसी प्रकार की लज्जा या संकोच को स्थान देना ठीक नहीं। तुम अच्छीतरह विचार कर लो। मेरे स्पर्श से तुम्हें भी यही रोग हो जायेगा
और तुम भी मेरी ही तरह कुरूप हो जाओगी! कहो, तुम्हें इन दोनों में से कौन सी बात पसन्द है?"
उम्बर की यह बातें सुन मैनासुन्दरी की आँखों से अश्रुधारा बह चली। उसने कहा- “स्वामिन् ! आप ऐसी बाते न कहिये। इन बातों से मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। क्या आप नहीं जानते कि भारतीय रमणियों का पति ही जीवन सर्वस्व होता है। मैं तन-मन से आपकी हो चुकी हूँ। मुझपर आपका पूर्ण अधिकार है। पति-पत्नी के पृथक् रहने की
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