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श्रीपाल-चरित्र झरने लगी। उसने कहाः- धन्य है पुत्री! तूने अच्छी विद्या प्राप्त की! तुझे पढ़ाने लिखाने का यही फल हुआ कि तूने आज मेरी बात काटी, भरी सभा में मेरा अपमान किया; किन्तु ध्यान रहे, इससे मेरा कुछ न बिगड़ेगा। इन बातों से तूने अपना ही भविष्य बिगाड़ डाला है। मैंने तुझे पाल-पोस कर बड़ी किया, अच्छे से अच्छा भोजन खिलाया, बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहनाये, सेवा के लिये दास-दासियाँ दी और सब तरह से तुझे सुखी रक्खा। क्या तू यह कहना चाहती है, कि यह सब मैंने नहीं किया, तेरे भाग्य-बल से ही हो गया?
मैनासुन्दरी ने कहा-पिताजी! आप बुरा न मानिये, क्रोध को किनारे रख, तत्व-बुद्धि से विचार कीजिये और सोचिये कि मैं जो कहती हूँ, वह ठीक है या नहीं। मैं तो फिर भी कहती हूँ कि, कम-संयोग से ही आपके वंश में मेरा जन्म हुआ है। आपकी ओर से मुझे जो वस्त्रालंकार, खान-पान, सुख-समृद्धि या प्रेम उपलब्ध होता है, वह मेरे शुभ कर्मों के उदय का ही फल है, और कुछ नहीं। यदि आप शान्त चित्त से विचार करेंगे, तो मेरी इन बातों का तथ्य तत्काल समझ में आ जायेगा।
राजा ने रुष्ट होकर कहा-बस मैना ! मैं अब तेरी बातें नहीं सुनना चाहता। यदि तुझे प्रारब्ध पर ही इतना अधिक
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