Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ४१. आहाराणुवादेण आहारा बंधा ॥ ४१ ॥ अणाहारा बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अस्थि ॥ ४२ ॥ सिद्धा अबंधा ॥ ४३॥
सुगममेदं । . ... एसो बंधगसंताहियारो पुव्वमेव किमटुं परूविदो ? 'सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त' इति न्यायात् बंधयाणमत्थित्ते सिद्धे संते पच्छा तेसिं विसेसपरूवणा जुज्जदे । तम्हा संतपरूवणं पुव्वमेव कादम्वमिदि। एवमत्थित्तेण सिद्धाणं बंधयाणमेक्कारसअणियोगद्दारेहि विसेसपरूवणमुत्तरगंथो अवइण्णो ।
( एवं बंधगसंतपरूवणा समत्ता ।।
आहारमार्गणानुसार आहारक जीव बन्धक हैं ॥ ४१ ॥ अनाहारक जीव बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥ ४२ ॥ सिद्ध अबन्धक हैं ।। ४३ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। शंका-यह बन्धकसत्वाधिकार पूर्वमें ही क्यों प्ररूपित किया गया है ?
समाधान-'धर्मीके सद्भावमें ही धौका चिन्तन किया जाता है' इस न्यायके अनुसार बंधकोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर पश्चात् उनकी विशेष प्ररूपणा करना योग्य है। इसलिये बन्धकोंकी सत्प्ररूपणा पहले ही करना चाहिये । इस प्रकार अस्तित्वसे सिद्ध हुए बन्धकोंके ग्यारह अनुयोगों द्वारा विशेष प्ररूपणार्थ भागेकी प्रन्थरचना हुई है। .
इस प्रकार बन्धकसत्प्ररूपणा समाप्त हुई।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org