________________
२८
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ विरुद्धयोरेकत्र समवधानमिति ततो विरुद्धानैकान्तिकत्वे अपि नाशङ्कनीये।
अथ कथमर्थक्रियासामर्थ्यनिवृत्तिः क्रमयोगपद्यनिवृत्तिनिमित्ता, तयोस्तद्(?द)व्यापकत्वात् ? अथात्रापि यदि व्याप्य-व्यापकभावो बाधकान्तरनिबन्धनस्तदा बाधकान्तरं तत्राप्यन्वेषणीयम् तथा तदन्यत्रापि इत्यनवस्थाप्रसक्ते
रप्रतिपत्तिः । असदेतत्- यतः क्रमयोगपद्याभ्यां सामर्थ्यस्य व्याप्तिः प्रकारान्तरऽसंभवतो निश्चितेति कुतोऽ5 नवस्था ? प्रत्यक्षबलादेव च प्रकारान्तरासंभवो निश्चितः। 'प्रत्यक्षस्याऽभावविषयत्वविरोधात् न' इति चेत्?
न, भावमेव क्रमेणेतरेण वा कार्योदयलक्षणं प्रतिप(ना?)द्याध्यक्षेण द्वैराश्यव्यवस्थापनतः प्रकारान्तराभावसाधनात्। असत्त्व और सत्त्व परस्परविरुद्ध होने से, ऐसी शंका ही नहीं कर सकते कि क्षणिकत्वस्वभावभूत सत्त्व
का विरोधी असत्त्व क्षणिक में रहता होगा। अथवा ऐसी भी शंका नहीं कर सकते कि क्षणिक में असत्त्व 10 के साथ सत्त्व भी रहता होगा - क्योंकि दोनों परस्पर विरुद्ध होने से एकत्र नहीं रह सकते ।
[ अर्थक्रिया का व्यापकत्व क्रमादि में प्रश्नापन्न ] प्रश्न :- क्रम-योगपद्य अर्थक्रिया के व्यापक सिद्ध नहीं है, तो उन की निवृत्ति के बल पर अर्थक्रियासामर्थ्य की निवृत्ति किस तरह कही जा सकती है ?
उत्तर :- हमने जो अक्षणिक में अर्थक्रियायोग में बाधक प्रमाण दिखाया उस से सिद्ध होता है क्रम15 यौगपद्य में अर्थक्रिया का व्यापकत्व ।
प्रश्नकार :- उस बाधक प्रमाण में भी व्याप्य-व्यापकभाव दिखाना पडेगा, अन्यथा वह बाधकप्रमाण भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। द्वितीय व्याप्य-व्यापकभाव की सिद्धि के लिये जो बाधक प्रमाण दिखायेंगे उस
के लिये और एक व्याप्य-व्यापकभाव.... इस तरह तो कल्पना का अन्त न होने से क्रम-योगपद्य में अर्थक्रिया के व्यापकत्व की सिद्धि दुःस्वप्न बन जायेगी। 20 उत्तर :- यह कथन गलत है। क्रम और यौगपद्य के विना कार्य करने की और कोई पद्धति ही जब
अस्तित्व में नहीं है तब अपने आप क्रम-योगपद्य के साथ कार्यसामर्थ्य की व्याप्ति निश्चितरूप से गृहीत हो जाती है, फिर यहाँ अनवस्था दोष को अवकाश ही कहाँ है ? और कोई पद्धति का अस्तित्व नहीं - यह तथ्य तो प्रत्यक्षबल से ही निश्चित हो चुका है। यदि कहें कि - ‘प्रत्यक्षत्व का अभावविषयत्व
के साथ विरोध होने से अन्यपद्धति का अभाव प्रत्यक्ष से गृहीत नहीं हो सकता' – तो यह ठीक नहीं। 25 प्रत्यक्ष क्रमशः कार्यकारित्व अथवा युगपत्कार्यकारित्व प्रकार से कार्योदय करनेवाले भाव को ग्रहण कर ही
सकता है, वही प्रत्यक्ष क्रम और युगपत् प्रकारद्वयरूप दो राशि' का जो प्रख्यापन करता है यही है अन्यपद्धति के अभाव का प्रख्यापन। (यानी यहाँ अभाव भावात्मकराशिद्वय का ही स्वरूपान्तर है इसलिये राशिद्वय के रूप में उस का ग्रहण शक्य है।)
1. तत्त्वसंग्रहेऽन्यप्रकारेण द्वैराश्यमुपदिष्टम् - तद्यथा, कृतकाऽकृतकत्वेन द्वैराश्यं कैश्चिदिष्यते । क्षणिकाऽक्षणिकत्वेन भावनामपरैर्मतम् ।। का.३५२ ।। तथा तस्य पञ्जिकायामुक्तमित्थम्- ‘इह हि नैयायिकादयः क्षणिकमेकमपि वस्तु नास्तीति मन्यमानाः कृतकाऽकृतकत्वेन भावानां द्वैराश्यमवस्थापयन्ति । अपरैस्तु वात्सीपुत्रीयादिभिः क्षणिकाऽक्षणिकत्वेनापि भावानां द्वैराश्यमिते"। (पज्जिकायां पृष्ठ १३२ पंक्ति ५७)
www.jainelibrary.org
For Personal and Private Use Only
Jain Educationa International