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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ न पूर्वादिमत्तया। अथ पूर्वकालादिमत्त्वं रजतादेरवभासयति, ननु तदपि तद्देशादिमत्त्वमेव तस्याऽवभासयति (न) तदानीन्तनदेशादिमत्त्वं, तदनवभासने च कथं भ्रान्तदर्शनावसेयस्य रजतादेस्तेन पूर्वदेशादिमत्तावगते(ति? न च) 'तत्रान्यदेशादि(नादि?)मानर्थोऽन्यदेशादितया वितथदर्शने प्रतिभातीति वक्तव्यम्, न च बाधकप्रमाणं
भ्रान्तदृगवगतरजतादेरन्यत्र देशादितामावेदयति यतो बाधकप्रतीतिरपि रजतादिकमलीकतयाऽऽवेदयति 5 नत्वन्यदेशादितया, न हि सा ‘अन्यदेशादि रजतम्' इत्यवगच्छति किन्तु 'नेदं रजतम्' इति।
____ यदि च भ्रान्तदृशि प्रतिभासमानो रजतादिस्तद्देशादौ नास्ति तर्हि ज्ञानस्यैवाभा(?सा)वाकारो नार्थस्येति कथं न ज्ञानस्य निरालम्बनता ? निरालम्बनत्वं ह्यर्थसंनिधिनिरपेक्षस्य ज्ञानस्य जन्म। तच्चोपरतप्रमेयाणामर्थसंनिधिनिरपेक्षत्वात् स्वप्नादिप्रत्ययानामस्तीति न दृष्टान्तासिद्धिः । यदि च स्वप्नादिदर्शनं विशदावभास्य
प्यन्यदेशाद्यर्थविषयम् परिशुद्धदर्शनमपि यथाप्रतिभासमानं पूर्वदृष्टाना(लं)बनं किं नाभ्युपेयते ? अथ 10 परित्यागो भवेत् । अथ बाधकेऽपरबो(?बा)धकान्तराभावात् तस्य वर्तमानावभासकत्वम्, ननु बाधकाभाव
प्रत्ययेऽभावप्रत्ययावतारात् पूर्वदृशा(?ष्टा)र्थग्राहिता। ननु बाधकवित्तेरपि पूर्वपरिज्ञातय(?र)जताद्यभाववेदित्वं होती है। वह रजतदर्शन तो रजत को तद्देश (संमुखीनदेश) वृत्तिरूप से ही प्रदर्शित करता है न कि पूर्वादिवृत्तिरूप से। यदि कहा जाय – 'भ्रान्त रजतदर्शन पूर्वकालादिवृत्तित्व को भासित करता ही
है' - नहीं, पूर्वकालादिवृत्ति का ग्रहण शक्य न होने से संमुखदेश-कालादिवृत्ति का ही वहाँ ग्रहण 15 हो सकता है, न पूर्वदेश-कालादिवृत्ति का। जब वर्तमान में संमुखदेश में उस का ग्रहण ही शक्य
नहीं है तब तथाकथित भ्रान्तदर्शन का ज्ञेय रजतादि की पूर्वदेशादिवृत्ति का भान उस दर्शन से होगा ही कैसे ? इसी लिये ऐसा कहना निषिद्ध है कि – 'वहाँ एक देशादिगत रजतादि अर्थ अन्यदेशादिवृत्तितया विपरीतदर्शन में भासता है।' कारण :- ऐसा कोई बाधक प्रमाण नहीं है जो तथाकथित भ्रान्तदर्शनगृहीत
रजतादि को अन्यदेशादिवृत्तितया प्रकाशित कर सके। यह भी इस लिये कि बाधक प्रतीति भी रजतादि 20 को ‘इस दर्शन में भासमान रजत अलीक = असत्य है इतना ही प्रकाशित करती है न कि अन्यदेशादिवृत्ति
को। बाधक प्रतीति ‘यह रजत अन्यदेशादिवृत्ति है' ऐसा अवगाहन नहीं करती किन्तु 'यह रजत नहीं है' ऐसा अवगाहन जरूर करती है।
[ज्ञान की निरालम्बनता का उपपादन ] निरालम्बनज्ञानवादी कहता है – भ्रमज्ञान में प्रतिभासमान रजतादि संमुखदेश में नहीं है तब 25 तो उस का मतलब यह हुआ कि वह रजतादि आकार अर्थ का नहीं ज्ञान का ही है, फिर ज्ञान
को निरालम्बन मानने में क्या हानि है ? निरालम्बनता यही है - अर्थसंनिधि के विना ज्ञान का उद्भव । यहाँ दृष्टान्त कोई नहीं है ऐसा मत कहना, प्रमेयों का क्षय हो जाने पर भी अर्थनिरपेक्ष स्वप्नादिप्रतीति होती है यह दृष्टान्त है। जब आप (अन्यथाख्यातिवादी) स्पष्टावभासि स्वप्नादि दर्शन
को अन्यदेशकालादिअतीतार्थविषयक मानने को तैयार है तो उस के बदले परिशुद्धदर्शन को जैसा कि 30 वह प्रतिभासित होता है तदनुसार पूर्वदृष्टालम्बन से रहित ही क्यों नहीं मान लेते ? हाँ, अर्थ का
त्याग हो सकता है। – 'बाधक के बारे में अन्य कोई बाधक का अवतार न होने से, बाधक प्रत्यय को वर्तमानार्थप्रदर्शक ही मानना पडेगा। यदि बाधक अभाव प्रतीति के बारे में अभावप्रतीति का प्रादुर्भाव
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