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पुद्गलद्रव्यं अतीतानागतवर्त्तमानद्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषपरिणामात्मकं युगपत् क्रमेणापि तत् तथाभूतमेव । एकान्तासत उत्पादायोगात् सतश्च निरन्वयविनाशासम्भवादिति प्रतिपादितत्वात् ।।३१ ।। एवं तावद् बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधस्यापि वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रतिपादनवाक्यनयानामपि तथाविधमेव स्वरूपम् नान्यादृग्भूतमस्तीति प्रतिपादयन्नाह
(मूलम् - ) पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई - मरणकालपज्जन्तो ।
तस्स उ बालाईया पज्जवजोया बहुवियप्पा ।। ३२ ।।
अथवा अर्थ-व्यञ्जनपर्यायैः शक्ति-व्यक्तिरूपैरनन्तैरनुगतोऽर्थः सविकल्प: निर्विकल्पश्च प्रत्यक्षतोऽवगतः, इदानीं पुरुषदृष्टान्तद्वारेण व्यञ्जनपर्यायं तदविकल्पकत्वनिबन्धनम् अर्थपर्यायं च तत्सविकल्पकत्वनिमित्तमाह- पुरिसम्मि० इत्यादिना सूत्रेण -
10 में सर्व वस्तु परस्पर अनुवृत्ति के द्वारा सभी अवस्थाओं को प्राप्त कर चुकी है। यद्यपि अवस्था (पदार्थ) एकरूप होने पर भी अवस्थावृंद से कथंचिद् उस का अभेद होने से अवस्था भी अनन्तविध होती ही है। अब इस से यह फलित होता है कि वर्त्तमानकालीन घटादि वस्तु कभी भूतकाल में वस्त्र या देहपुरुषरूप से कथंचिद् रह चुकी है अतः सर्व पदार्थ (परिवर्त्तन शील होने से ) कथंचित् सर्वात्मक हैं यह सिद्ध होता है ।
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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
[ एकान्त असत् का उत्पाद नहीं, एकान्त सत् का नाश नहीं ]
दिखता है कि एक ही बीजादि पुद्गलद्रव्य विविध परिणाम आश्लिष्ट होते हैं जैसे अतीतपरिणाम, अनागत, वर्त्तमानपरिणाम, द्रव्यात्मक, गुणात्मक, क्रियात्मक, सामान्यरूप या विशेषपरिणामात्मक । ये परिणाम भी कभी यथासंभव एकसाथ बनते हैं तो कभी क्रमशः भी, वे अनन्तविध हो इस में क्या आश्चर्य ?! इस का मूल यह है कि एकान्त असत् वस्तु का उत्पाद कभी नहीं होता, जो दुग्धादिरूप 20 से पुद्गल था वही दधि आदि रूप से उत्पन्न होते रहते हैं । तथा सत् पदार्थ का कभी भी निरन्वय पहले ऐसा प्रतिपादन कर दिया है, इस वजह से सर्व वस्तु सर्वात्मक
( अत्यन्त ) विनाश नहीं होता
हो सकती है ।। ३१ ।।
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[ ३२ वे श्लोक की भिन्न भिन्न अवतरणिका ]
(१) अवतरणिका :- अनन्तर गाथा के द्वारा बाह्य (यानी ग्राह्य वस्तु) और अभ्यन्तर (यानी 25 ग्राहक आत्मा), अथवा आत्मा और पुद्गल ऐसे दोनों प्रकार की वस्तु अनेकान्तात्मक ही होती है ऐसा निवेदित कर दिया, अब कहते हैं कि वस्तु के प्रतिपादक वाक्यनयों का स्वरूप भी अनेकान्तगर्भित होता है न कि अन्यरूप या एकान्तगर्भित
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गाथार्थ :- पुरुष के लिये 'पुरुष' शब्द जन्म आदि से मरणपर्यन्त होता है, बालादि बहु अवस्थाएँ उसी के पर्याययोग हैं । । ३२ ।।
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(२) अवतरणिका :- ( दूसरे प्रकार से अवतरणिका :-) अर्थपर्याय शक्तिरूप है, व्यञ्जनपर्याय व्यक्तिरूप है, ऐसे अनन्तपर्यायों से व्याप्त अर्थ चाहे सविकल्प (सामान्य) हो या निर्विकल्प (विशेषरूप), प्रत्यक्षप्रसिद्ध है। इतना कह देने के बाद पुरुष के दृष्टान्त से अब यह कहना है कि अर्थगत निर्विकल्पकत्व (=
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