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खण्ड - ३,
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यावन्तो
पानीययोः परस्परप्रदेशानुप्रविष्टयोः । किंपरिणामोऽयभविभागो जीव- कर्मप्रदेशयोः ? इत्याहविशेषपर्यायास्तावान्। अतः परमवस्तुत्वप्रसक्तेः अन्त्यविशेषपर्यन्तत्वात् सर्वविशेषाणाम् ' अन्त्यः' इति विशेषणान्यथानुपपत्तेः । । ४७ ।।
जीव-कर्मणोरन्योन्यानुप्रवेशे तदाश्रितानामन्योन्यानुप्रवेश इत्याह
गाथा ४८
(मूलम्- ) रूआइपज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि ।
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ते अण्णोण्णाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि ।।४८ । । रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादयो ये पर्याया देहाश्रिता जीवद्रव्ये विशुद्धस्वरूपे च ये ज्ञानादयस्तेऽन्योन्यानुगता जीवे रूपादयो देहे ज्ञानादय इति प्ररूपणीया भवस्थे संसारिणि अकारप्रश्लेषाद् वाऽसंसारिणि । न च संसारावस्थायां देहात्मनोरन्योन्यानुबन्धात् रूपादिभिस्तद्व्यपदेशः मुक्त्यवस्थायां तु तदभावात् नासौ युक्त इति वक्तव्यम्, तदवस्थायामपि देहाद्याश्रितरूपादिग्रहणपरिणतज्ञानदर्शनपर्यायद्वारेणात्मनस्तथाविधत्वात् 10 तथाव्यपदेशसम्भवात् आत्म- पुद्गलयोश्च रूपादिज्ञानादीनामन्योन्यानुप्रवेशात् कथञ्चिदेकत्वम् अनेकत्वं च, मूर्त्तत्वम् अमूर्त्तत्वं चाव्यतिरेकात् सिद्धमिति । ।४८ ।।
अयुक्त समझना ? उत्तर :- जितने भी विशेषपर्याय हैं वहाँ तक । सकल विशेष पर्यायों से आगे चले तो अवस्तु ही हाथ पडेगी । अतः फलितार्थ हुआ सर्व विशेषों में चरम विशेष की सीमा तक । चरम विशेष तक न ले तो 'अन्त्य' विशेषण की संगति नहीं हो सकेगी । । ४७ ।।
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[ संसार या मोक्ष दशा में रूपादि-ज्ञानादि का प्रवेश ]
जीव और कर्म का जैसे अन्योन्य संमिश्रण है वैसे उन में रहनेवाले धर्मों का भी अन्योन्य संमिश्रण होता है इस तथ्य का ४८ वीं गाथा में प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ :- देहगत जो रूपादिपर्याय और शुद्ध जीवद्रव्यगत जो ( ज्ञानादि पर्याय) हैं, संसारवासीयों में वे अन्योन्यानुगत होते हैं ऐसा प्रतिपादनार्ह है । ।४८ । ।
व्याख्यार्थ :- रूप रस गन्ध स्पर्श ये जो देहाश्रित पर्याय और शुद्धस्वरूपवाले जीवद्रव्य में जो ज्ञानादि पर्याय हैं वे सब अन्योन्याप्रविष्ट जान लेना । मतलब, जीव में ज्ञानादि उपरांत रूपादि का प्रवेश मानना चाहिये, एवं देह में रूपादि उपरांत ज्ञानादि का भी प्रवेश मानना चाहिये। सिर्फ भवस्थित जीव में ही नहीं भवमुक्त जीव में भी । मूल गाथा में 'भवत्थम्मि' पद के आगे अवग्रह समझ कर अकारवृद्धि कर लेना ।
प्रश्न :- संसार अवस्था में देह आत्मा के अन्योन्य अनुबद्धता कारण जीव में रूपादि प्रवेश ठीक है, लेकिन मुक्तिदशा में देह नहीं है तब जीव में रूपादि प्रवेश क्यों मानना ?
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उत्तर :- ऐसा मत बोलना । मुक्तावस्था में भी स्वकीय भूतकालीन देह के रूपादि अथवा अन्य संसारी जीवों के रूपादि के ग्रहण में मुक्तिकालीन ज्ञान दर्शनपर्याय परिणत ही हैं अतः स्वविषयक ज्ञान-दर्शन उपयोगवत्त्व सम्बन्ध से मुक्तावस्था में भी रूपादि का जीव में प्रवेश युक्तिसंगत होने से 30 'रूपादिमान् मुक्तात्मा' ऐसा निर्देश या व्यवहार सम्भव । तथा, आत्मा और पुद्गल में भी रूपादि
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