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खण्ड - ३,
गाथा - ५२-५३
(मूलम् - ) दव्वट्ठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा ।
अण्णो करेइ अण्णो परिभुंजइ पज्जवणयस्स । । ५२ ।।
य एव करोति स एव वेदयते नित्यत्वात् द्रव्यास्तिकस्यैतन्मतम् । अन्यः करोत्यन्यश्च भुङ्क्ते क्षणिकत्वात् पर्यायनयस्य । ननु पूर्वगाथोक्तमेव पुनरभिदधता पिष्टपेषणमाचार्येण कृतं भवेत् ! न, उत्पत्तिसमनन्तरध्वस्तेन करणम् भोगो वाऽसम्भवतीति प्राक् प्रतिपादितम् - इह तु उत्पत्तिक्षण एव कर्त्ता 5 तदनन्तरक्षणश्च भोक्तेति न पुनरुक्तता । उक्तं च परै: 'भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव वोच्यते' [ ] इति । । ५२ ।
इयमसंयुक्तयोरनयोः स्वसमयप्ररूपणा न भवति या तु स्वसमयप्ररूपणा तामाह(मूलम्- ) जे वयणिज्जवियप्पा संजुज्जंतेसु होन्ति एएसु ।
सा स-समयपण्णवणा तित्थयराऽऽसायणा अण्णा । । ५३ । ये वचनीयस्याभिधेयस्य विकल्पास्तत्प्रतिपादका अभिधानभेदाः संयुज्यमानयोरन्योन्यसम्बद्धयोर्भवन्त्यनयोः गाथार्थ :- द्रव्यार्थिक मत में जो करता है वही अवश्य भोगता है । पर्यायार्थिक मत में एक करता है दूसरा भोगता है । । ५२ ।।
व्याख्यार्थ :- द्रव्यास्तिकनय कर्त्ता को नित्य मानता है अतः उस के मतानुसार जो कर्म करता है वही उस के फल को भोगता है । पर्यायनय क्षणिकवादी है अतः उस के मतानुसार कोई एक कर्म 15 करता है तो दूसरा उस का फलभोग करता है ।
प्रश्न :- यही बात मूलग्रन्थकार ने पूर्व गाथा में कर दिया है, पुनः उसी बात को इस गाथा कर के पिष्टपेषण नहीं किया ?
उत्तर :- नहीं, पूर्वगाथा में उत्तरार्ध से, उत्पन्न होते ही नष्ट हो जानेवाले क्षणिक पदार्थ में करण और भोग असम्भवी है यह कहा है, इस गाथा में बात अलग है
उत्पत्तिक्षण को कर्त्ता कहा है 20
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और तदुत्तरक्षण को भोक्ता बताया है इस लिये कोई पुनरुक्ति नहीं है
।
अन्य विद्वानोंने भी यही कहा
)' ।। ५२ ।।
'उन की उत्पत्ति वही अर्थक्रिया है और वही कारक भी है ( अवतरणिका :- असंयुक्त दोनों नयों की यह बात स्वसमयप्ररूपणा नहीं है । स्व- समयप्ररूपणा कैसी होती है यह दिखाते है
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गाथार्थ :- अन्योन्यसम्बद्ध दोनों नयों में जो अभिधेय के ( अभिधायक) प्रकार होते हैं वह स्वसिद्धान्त 25 की प्ररूपणा है । उस से विपरीत तीर्थंकर की आशातना है । । ५३ ।।
व्याख्यार्थ :- अन्योन्य सम्बद्ध द्रव्यास्तिक-पर्यायार्थिक नयों के जो अभिधेय अर्थ अनुसारी 'कथंचिद् नित्य है आत्मा कथंचिद् अमूर्त्त है' इत्यादि जो प्रतिपादन प्रकार हैं वह स्वसिद्धान्त यानी उस ་. क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अस्थिराणां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते । । इति बोधिचर्या. प्रज्ञापार. पञ्चि. परि. ९, ब्रह्म. भामती, रत्नाकराव. परि. १-१५, स्या. मञ्जरी श्लो. १६, मध्यमकवृ . इत्यादि ग्रन्थेषु - इति भूतपूर्वसम्पादकयुगलटीप्पणे ।
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