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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ = द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकवाक्यनययोः, ते च- 'कथंचिन्नित्य आत्मा कथंचिदमूर्तः' इत्येवमादयः। सा एषा स्वसमयस्येति तदर्थस्य प्रज्ञापना = निदर्शना। अन्या तु निरपेक्षयोरनयोरेव नययोर्या प्ररूपणा सा तीर्थकरस्य आसादना = अधिक्षेपः।' ‘एगमेगे णं जीवस्स पएसे अणंतेहिं णाणावरणिज्जपोग्गलेहि आवेढियपवेढिए' [ ] इति तीर्थकृद्वचने प्रमाणोपपन्ने सत्यपि - [ ]
'नाऽमूर्तं मूर्त्ततामेति मूर्तं नायात्यमूर्त्तताम्। द्रव्यं कालत्रयेऽपीत्थं च्यवते नात्मरूपतः।।' इति तीर्थकृन्मतमेवैतन्नयवादनिरपेक्षमिति कैश्चित् प्रतिपादयद्भिस्तस्याधिक्षेपप्रदानात् ।।५३ ।। परस्परनिरपेक्षयोरनयोः प्रज्ञापना तीर्थकरासादना इत्यस्यापवादमाह(मूलम्-) पुरिसज्जायं तु पडुच्च जाणओ पण्णवेज्ज अण्णयरं।
परिकम्मणाणिमित्तं दाएही सो विसेसं पि।।५४ ।। पुरुषजातं = प्रतिपन्नद्रव्यपर्यायान्यतरस्वरूपं श्रोतारं वा प्रतीत्य = आश्रित्य ज्ञकः = स्याद्वादवित् प्रज्ञापयेत् = आचक्षीत अन्यतरत् पर्यायं द्रव्यं वा। अभ्युपेतपर्यायाय द्रव्यमेव, अङ्गीकृतद्रव्याय च पर्यायमेव के प्रतिपाद्य अर्थों की प्ररूपणा = निदर्शन है। उस से विपरीत, अन्योन्यनिरपेक्ष उन्हीं दो नयों की जो (एकान्त) प्ररूपणा है वह तीर्थंकरप्रभु की आशातना यानी अधिक्षेप = अवज्ञारूप है।
तीर्थंकर प्रभु का (भगवतीसूत्रादि में) यह प्रमाणसिद्ध वचन मिलता है कि एगमेगं णं.... इत्यादि 15 जिस का भावार्थ है कि - ‘जीव के प्रदेश अन्योन्य ज्ञानावरणीय अनंत पुद्गलों से आवेष्टित-परिवेष्टित
(यानी अन्योन्यप्रविष्ट) हैं'। ऐसा मूर्त्तामूर्त उभयात्मक स्वरूप के निर्दर्शक वचन प्रसिद्ध होने पर भी कुछ विद्वानों ने – * अमूर्त कभी मूर्त्ततापन्न नहीं होता, मूर्त कभी अमूर्त्ततापन्न नहीं होता। तीन काल में भी इस ढंग से द्रव्य अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता' – इस प्रकार नयवादनिरपेक्ष यह तीर्थंकरों
का ही वचन है ऐसा प्रतिपादन करते हुए तीर्थंकरों के ऊपर आरोप लगाया है, अतः वह तीर्थंकर 20 प्रभु की आशातना है ऐसा ग्रन्थकर्ता को कहना पडा है।।५३ ।।
[ व्यक्तिविशेष के लिये एक नय की प्ररूपणा निर्दोष ] अवतरणिका :- सामान्यरूप से कहा कि परस्परनिरपेक्ष दो नयों की प्ररूपणा तीर्थंकर की आशातना है। इस में जो अपवाद है वह गाथा ५४ से दिखाते हैं -
गाथार्थ :- व्यक्ति विशेष को लक्षित कर के ज्ञाता किसी एक नय की प्ररूपणा कर सकता है। 25 एवं बुद्धिपटुता के लिये वह विशेष को भी दिखायेगा । ५४ ।।
व्याख्यार्थ :- द्रव्य या पर्याय में से किसी एक को ही पकड लेने वाले व्यक्ति विशेष अथवा तथाविध श्रोता को लक्ष में रख कर अनेकान्तवादनिष्णात किसी एक द्रव्य या पर्याय का व्याख्यान कर सकता है। जो पर्याय को पकड कर बैठा है उस के सामने केवल द्रव्य का व्याख्यान करे, जो 1. प्र० एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिए परिवेढिए सिया ? उ० गोयमा सिय आवेढियपरिवेढिए सिय नो आवेढियपरिवेढिए ... नियमा अणंतेहिं...भगवती. श. ८, उ. १० सू. ३५९ ।।) *. 'परः शंकते' इति निर्दिश्य शा.वा. समु. स्त.३ मध्ये पद्यमिदमुद्धृतम् तत्रोत्तरार्धस्तु 'यतो बन्धाद्यतो न्यायादात्मनोऽसंगतं तया ।।' इति निर्दिष्टः।। (भूतपूर्वसम्पादकयुगलनिर्देशः ।)
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