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खण्ड-३, गाथा-५० न चात्मनः शरीरमात्रव्यापकत्वेऽन्यत्र शरीरान्तरसम्बन्धन्यथानुपपत्त्या गतिक्रियाप्रसक्तेरनित्यत्वप्रसक्तिर्दोषः; कथंचित्तस्येष्टत्वात् गृह्यन्तर्गतप्रदीपप्रभावत् संकोच-विकाशात्मकत्वेन तस्य न्यायप्राप्तत्वात्। न च देहात्मनोरन्योन्यानुबद्धत्वे देहभस्मसाभावे आत्मनोऽपि तथात्वप्रसक्तिः, क्षीरोदकवत् तयोर्लक्षणभेदतो भेदात् । न हि भिन्नस्वरूपयोरन्योन्यानुप्रवेशे सत्यप्येकक्षयेऽपरस्य क्षयः यथा क्वाथ्यमाने खीरे प्रथममुदकक्षयेऽपि न क्षीरक्षयः । न चेह लक्षणभेदो नास्ति । तथाहि-रूप-रस-गन्धस्पर्शादिधर्मवन्तः पुद्गलाः चेतनालक्षणन्यात्मेति 5 सिद्धस्तयोर्लक्षणभेदः। यथा चैकान्तामूर्त्तादिरूपत्वेऽर्थक्रियादेर्व्यवहारस्याभावस्तथा प्रतिपादितमनेकधेति मूर्तामूर्ताद्यनेकान्तात्मकत्वमात्मनोऽभ्युपगन्तव्यम् ।।५०।। भेद होने पर भी तद्गत तैलादि अवयवी को अविभक्त मानना पडेगा। पुरुष के हस्तादि अवयव का छेद होने पर भी तद्गत आत्मा का छेद नहीं मानेंगे तो छिन्न हस्तादि में कम्पन आदि का उपलम्भ नहीं होगा। आखिर मानना पडेगा कि छिन्न हस्तादिगत विभक्त आत्मा पुनः शेष शरीरभाग में प्रविष्ट 10 हो जाता है क्योंकि उस विभक्त दशा में भी आत्मा तो एक ही है।
प्रश्न :- अछिन्न शरीर और छिन्न हस्तादि गत आत्मा का विभाजन हो जाने के बाद पुनः उस का संघटन किस तरह से होगा ?
___ उत्तर :- अरे ! यहाँ कोई एकान्ततः छिन्नता है ही नहीं, पद्मनाल तन्तु जैसे पहले अकड होता है, कोई हाथ में लेकर दोनों छोर को मिलावे तो कुछ टूटता है फिर भी सम्पूर्ण खण्डित नहीं होता, 15 इस तरह यहाँ आत्मा विघटन होने पर भी तथा प्रकार के अदृष्ट से पुनः संघटित होने में कोई भी विरोध नहीं है।
[ आत्या में गमनक्रिया से अनित्यत्वप्राप्ति निर्दोष ] शंका :- आत्मा यदि देहमात्रव्यापक होगा तो भवान्तर में अन्य देह के साथ सम्बन्ध की गमनक्रिया के विना उपपत्ति हो नहीं सकेगी, फलतः गति से अनित्यत्व भी प्रसक्त होगा।
20 उत्तर :- कथंचिद् अनित्यत्व स्वीकारते हैं। जैसे गृहान्तर्वर्ती प्रदीप की प्रभा खिडकीयों के खोलबन्द करने से संकोच-विकासशाली फिर भी एक, किन्तु कथंचिद् अनित्य होती है वैसे आत्मा में भी वह न्यायसंगत है। ___शंका :- देह-आत्मा अन्योन्यप्रविष्ट होंगे तो देह के भस्मीभूत होने पर आत्मा भी भस्मीभूत हो जायेगा।
25 उत्तर :- नहीं लक्षणभेद से क्षीर-उदक की तरह उन दोनों में कथंचिद् भेद स्वीकार्य है। भिन्न भिन्न स्वरूप (= लक्षण) वाले अन्योन्यमिलित दो द्रव्यों में एक का नाश होने पर दूसरे का भी नाश होना जरूरी नहीं है। उदा० अन्योन्यमिलित जल और दूध को उबाला जाय तब पहले जल का नाश होता है उस वक्त दुधत्तत्व का नाश नहीं होता। प्रस्तुत में देह-आत्मा में लक्षणभेद का इनकार नहीं हो सकता। देह पुद्गलमय है उस का लक्षण रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादिधर्म हैं, आत्मा का 30 लक्षण चेतना है - इस प्रकार दोनों का लक्षणभेद सिद्ध है। पहले अनेक बार यह कह आये हैं कि यदि आत्मादि द्रव्य को एकान्ततः अमूर्त्तादिरूप मानेंगे तो आकाश की तरह उस में ज्ञानादि अर्थक्रिया
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