Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 03
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 391
________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ गत्यन्तराभावात्। न चैकत्वे आत्मनो विभागाभावाच्छेदाभाव इति वक्तव्यम्, शरीरद्वारेण तस्यापि सबिभागत्वात्, अन्यथा सावयवशरीरव्यापिता तस्य कथं भवेत् ? न चारभ्यमूर्त्तद्रव्यावच्छिन्नावयवस्य (?) सर्वदैव तस्य "तथाभावः - उत्तरकालमपि तदवयवोपष्टम्भोपलब्धस्यार्थस्य तथैव स्मरणात् अन्यत्वे चैतददर्शनात् । 5 न चासावारभ्यमूर्त्तद्रव्यवद् व्यणुकादिप्रक्रमेणावस्थितसंयोगैस्तेरारब्धः येन तद्वत् तस्य तथैव भावप्रसक्तिः । न चानारब्धत्वात् तस्य निरवयवत्वम् शरीरसर्वगतत्वाभावप्रसक्तेः । न च शरीराऽसर्वगतोऽसी, तत्र सर्वत्रैव स्पर्शोपलम्भात् । न तदव्यापकस्य तच्छेदे छेदः अतिप्रसङ्गात् । न च तदवयवच्छेदे न छिन्ना, तत्र कम्पाद्युपलब्धः, अतस्तत्रैवानुप्रविष्ट एकत्वादिति ज्ञायते। कथं छिन्नाछिन्नयोः संघटनं पश्चादिति चेत् ? न, एकान्तेन छेदाभावात् पद्मनालतन्तुवदविच्छेदाभ्युपगमात् संघटनमपि तथाभूतादृष्टवशादविरुद्धमेव । 10 हो जाने की विपदा होगी। आखिर मानना पडेगा कि छिन्न हस्तादि अवयव से तद्गत आत्मा अन्यत्र कहीं गया नहीं, न वहाँ उपलब्ध होता है – इसलिये शेष शरीर भाग में आत्मा का अनुप्रवेश मानना होगा, और कोई चारा नहीं है। [ एक आत्मा में विभाग के विना भी छेद की उपपत्ति ] प्रश्न :- यदि आत्मा एक है तो उस का मतलब कि कोई विभाजन है नहीं तो फिर छेद कैसे 15 हुआ ? उत्तर :- ऐसा मत बोलो, शरीरछेद के द्वारा आत्मा भी एक होते हुए भी सविभाग (सावयव) है, अन्यथा सावयवशरीर में वह व्याप्त हो कर रहेगा कैसे ? शंका :- आरभ्य यानी अवयवनिष्पन्न मूर्त्तद्रव्य (कपालादि या शरीरादि से) अवच्छिन्न (= विशिष्ट) सावयव द्रव्य (घटादि या आत्मादि) में भी हर हमेश (अवयवजन्य मूर्त्तद्रव्यत्व या) सखण्डत्व की 20 आपत्ति होगी। उत्तर :- नहीं हस्तादि छिन्न अवयव के कम्पन समाप्त होने पर भावि काल में तत्तद् हस्तादि अवयवप्रयोजित क्रियादि से उपलब्ध अर्थ का पूर्ववत् ही स्मरण शेषभाग निष्ठ आत्मा को होता है, यदि छिन्न अवयवगत आत्मा सर्वथा पृथक् ही होता तो यह स्मृतिदर्शन होता ही नहीं। आत्मा व्यणुकादि क्रमपरम्परानिष्पन्न बडे बडे अवयवों के संयोगों से अवयवारब्ध घटादि मूर्त्तद्रव्य की तरह आरब्ध नहीं 25 है कि जिस से घटादि के भेद = अवयवविभाजन की तरह आत्मा के अवयवों का भी विभाजन हो जाय । 'यदि इस तरह आत्मा को अनारब्ध मानेंगे तो वह निरवयव ही होगा' - ऐसा बोलना नहीं क्योंकि तब आत्मा शरीर के प्रत्येक अवयवों में व्याप्त हो कर रह ही नहीं पायेगा। 'वह तो शरीर में अव्याप्त ही है' - ऐसा भी नहीं है कि क्योंकि शरीर के प्रत्येक अवयवों में आत्मा की स्पर्शना (चैतन्य का चमकारा) अनुभूत होती है। यदि आत्मा को पूर्णतया देहव्याप्त न माने तो देह 30 के छेद से आत्मा का छेद मान ही नहीं सकेंगे क्योंकि तब अतिप्रसंग होगा, काँच के बरतन का .. संदर्भोऽस्य भूतपूर्वसम्पादकयुगलटीप्पणानुसारेण प्रमेयकमलमार्तण्ड-रत्नाकरावतारिकापरि.७- स्या. मञ्जरीश्लोक ९-शास्त्रवा. सम्.स्त. ३ स्या. कल्प. आदि ग्रन्थेष विभावनीयः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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