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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ स्थायित्वलक्षणमप्यनित्यत्वं तत्परिकल्पितं निरन्वयविनाशपक्षे अर्थक्रियानिवर्त्तनानुपयोगि तेषाम् । न च षट्क्षणावस्थानमपि सम्भवति, प्रथमक्षणसत्ताया द्वितीयक्षणसत्तानुप्रवेशे तत्क्षणसत्ताया अप्युत्तरक्षणसत्तानुप्रवेशपरिकल्पनायां क्षणिकत्वमेव, अननुप्रवेशेऽपि परस्परविविक्तत्वात् क्षणस्थितीनां तदेव क्षणिकत्वमिति
कुतः षट्क्षणावस्थानमेकस्य ? अक्षणिकत्वे चार्थक्रियाविरोधः प्रतिपादित एवेति न पदादिपरिकल्पना 5 वैशेषिकपक्षे युक्तियुक्तेति स्थितम् ।
ननु भवत्पक्षेऽपि क्रमस्य वर्णेभ्यो व्यतिरेके न वर्णविशेषणत्वम् अव्यतिरेके वर्णा एव केवलाः । ते च न व्यस्त-समस्ता अर्थप्रतिपादका इति पूर्वमेव प्रतिपादितमिति न शब्द: कश्चिदर्थप्रत्यायकः। असदेतत्- वर्णव्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तस्य क्रमस्य प्रतिपत्तेः । तथाहि-न वर्णेभ्योऽर्थान्तरमेव क्रमः, वर्णानुविद्धतया
तस्य प्रतीतेः। नापि वर्णा एव क्रमः तद्विशिष्टतया तेषां, न च तद्विशेषणत्वेन प्रतीयमानस्य क्रमस्याऽपह्नवो 10 युक्तिसंगतः, वर्णेष्वपि तत्प्रसक्तेः । न च भ्रान्तिरूपा प्रतिपत्तिरियम्, वर्णानां तद्विशिष्टतयाऽबाधिताध्यक्ष
अनुक्रम बना रहता है, इस प्रकार क्रमबद्ध वर्णसमुदाय ही वाचक होने से 'शब्द' कहा जाता है। इस प्रकार शब्द को न मान कर अन्य किसी प्रकार से उस को मानेंगे तो स्फोटवादादि में जो दूषण आते हैं उन का परिहार अशक्य होगा। वैशेषिकों की दर्शायी हुई पटादि प्रक्रिया अनुभवबाधित होने से गलत
है। निरन्वयविनाशी वर्गों से विज्ञान जन्म शक्य नहीं है - यह कई बार कहा जा चुका है। 15 वैशेषिकों के मत में वर्गों को निरन्वय विनाशी माने गये हैं अतः उन्होंने जो छ:-क्षणजीवित्वस्वरूप
अनित्यत्व का निरूपण किया है वह भी अर्थक्रिया सम्पादन में निरुपयोगी है। वैशेषिकमत का यह षट्क्षणजीवित्वमत भी चिरंजीवी नहीं है, क्योंकि यहाँ दो विकल्प हैं - पूर्वक्षणसत्ता का उत्तरक्षणसत्ता में अनुप्रवेश यानी अन्वय है या नहीं ? यदि प्रथमक्षणसत्ता का द्वितीयक्षणसत्ता में अन्वय है, तो
उत्तरोत्तर पंचमक्षणसत्ता का षष्ठक्षणसत्ता में अनुप्रवेश मानना ही पडेगा, फलतः सभी क्षणों का अन्तिम 20 क्षण में अनुप्रवेश हो जाने से आखिर तो क्षणमात्रजीवित्व ही प्रसक्त हुआ। यदि अनुप्रवेश नहीं है,
तो परस्पर सर्वथा एक-दूसरे से पृथक् होने के कारण, सभी वर्ण एकक्षणजीवी ही बन गये, फिर एक एक का षट्क्षपजीवित्व बचेगा कैसे ? यदि वर्गों को अक्षणिक मानेंगे तो उन में अर्थक्रियाकारित्व ने विरोध होता है यह पहले कहा जा चका है. अतः वर्गों से पद... इत्यादि कल्पना वैशेषिक दर्शन की युक्तिसंगत नहीं - यही निष्कर्ष आया।
[ क्रम और वर्गों के भेदाभेद से सर्वसंगति ] 'अरे ! आपने भी विशिष्टानुक्रम का उच्चार किया। पहले तो आपने ही (३१३-२४) में भेदअभेद विकल्प कर के कहा है – क्रम वर्गों से भिन्न होगा तो वर्णों का विशेषण (सम्बन्धानुपपत्ति के कारण) घटेगा नहीं, यदि अभिन्न होगा तो केवल वर्ण ही बचे। वर्ण तो पृथक् पृथक् या समुदित
- एक भी प्रकार से अर्थप्रतिपादक नहीं हो सकते। (३१३-२२) ऐसा आपने ही पहले निरूपण किया 30 है।" - ऐसा विरोधापादन निरर्थक है, क्योंकि हमारा तीसरा पक्ष है, वर्णों से भिन्नाभिन्न क्रम स्वीकृत
है, सुप्रतीत है। देखिये - क्रम वर्गों से एकान्त पृथक् नहीं है, क्योंकि वर्षों से ओतप्रोत क्रम सर्व जनों को प्रतीतिसिद्ध है। वर्णों से क्रम सर्वथा अभिन्न भी नहीं है, क्योंकि विशेषण के रूप में क्रम
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