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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - १
तदभिधानाद् वचनमपि तथा व्यपदिश्यते । तत्र शब्द- समभिरूढी संज्ञा - क्रियाभेदेप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्ग: प्रथमभंगकरूपः । एवंभूतस्तु क्रियाभेदाद् भिन्नमेवार्थं तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गकरूपस्तद्वचनमार्गः । अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव । यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषयः इति नावक्त5 व्यभङ्गकः व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्प - निर्विकल्पो प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येण, 'तु' शब्दस्य गाथायामेवकारार्थत्वात् । ।४१ । ।
इदानीं परस्पररूपापरित्यागप्रवृत्तसंग्रहादिनयप्रादुर्भूततथाविधा एव वाक्यनयास्तथाविधार्थप्रतिपादक इत्येतत् प्रतिपाद्याऽन्यथाभ्युपगमे तेषामप्यध्यक्षविरोधतोऽभाव एवेत्येतदुपदर्शनाय केवलानां तेषां तावन्मतमुपन्यस्यति
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सामान्य और निर्विकल्प का अर्थ है पर्याय । सामान्य और पर्याय का प्रतिपादक होने से तद्विषयक वचन को भी सविकल्प - निर्विकल्प कहा गया । शब्दनय में संज्ञाभेद होने पर भी, एवं समभिरूढ में क्रियाभेद होने पर भी अर्थभेद नहीं माना गया अतः इस अभिप्राय से ये दो नय के परिप्रेक्ष्य 15 में वचनमार्ग सविकल्प हैं जो प्रथमभङ्गरूप हैं । एवंभूतनय क्रियाभेद से अर्थभेद मान कर विवक्षितक्रिया अन्वित अर्थ का ही तत्क्रियाक्षण में प्रतिपादन करता अतः उस के मत से द्वितीयभंगरूप निर्विकल्प ही वचनमार्ग है । व्यञ्जननयों (= शब्दनयों) में अवक्तव्य भंग सम्भव नहीं । कारण :- व्यञ्जन श्रोताअभिप्रायरूप है। श्रोता शब्द श्रवण कर के अर्थबोध करता है शब्द सुने विना नहीं । जब कि अवक्तव्य तो शब्दाभावविषयक यानी शब्दबाह्य (= शब्दविनिर्मुक्त) होता है । अतः व्यञ्जनपर्याय में अवक्तव्य 20 भंग का सम्भव नहीं । इसी अभिप्रायवाले आचार्य ने व्यञ्जनपर्याय में सविकल्प = प्रथमभंग और निर्विकल्प = दूसरा भंग ये दो ही प्रतिपादित किये हैं। दो ही एवकारार्थ 'तु' शब्द से गाथा में सूचित किया गया है । । ४१ ।।
यहाँ 'ही'
अब मूलग्रन्थकार कहते हैं एक-दूसरे के स्वरूप का अपलाप न करते हुए अपने विषय में प्रवृत्त होनेवाले संग्रहादि ( बोधात्मक ) नयों से तथाविध ही ( परानपलापी) वाक्य नयों का प्रादुर्भाव 25 होता है और ये वाक्यनय भी तथाविध ( अन्य सापेक्ष) अर्थ के प्रतिपादक हैं, ऐसा यदि न माना जाय तो प्रत्यक्षतः विरोध प्राप्त होने से उन का अभाव यानी लोप ही प्रसक्त होगा इस तथ्य को प्रदर्शित करने के लिये सिर्फ स्वमत के आग्रही परनिरपेक्ष ऐसे नय के मत का उपन्यास अग्रिम गाथा ४२ से करते हैं
(मूलम् - ) जह दवियमप्पियं तं तहेव अत्थि त्ति पज्जवणयस्स । यस समय पण्णवणा पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा । ।४२ ।।
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[ पर्यायार्थिक नय का द्रव्यविषयक अभिप्राय अनुचित ]
गाथार्थ :- पर्यायनय :- द्रव्य जैसे विवक्षित है वह वैसा ही है यह पर्यायनयमात्र में व्याप्त समय अर्थ की प्ररूपणा नहीं । । ४२ ।।
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