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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
प्रतीतेस्तस्य यथा तस्य सम्बन्धो भेदाभेदपरिणतिरूपो भेदाभेदात्मकत्वप्रतिपत्तेर्बाह्याध्यक्षतः । । ४५ ।। आध्यात्मिकाध्यक्षतोऽपि तथाप्रतीतेस्तथारूपं तद् वस्त्विति प्रतिपादयन्नाह दृष्टान्तदान्तिकोपसंहार
द्वारेण
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(मूलम्) तेहिं अतीताणागयदोसगुणदुर्गुछणऽब्भुवगमेहिं ।
ताभ्यामतीतानागतदोष-गुणजुगुप्साऽभ्युपगमाभ्यां यथा भेदाभेदात्मकस्य पुरुषत्वस्य सिद्धि: तथा दान्तिकेऽपि तह बंध- मोक्ख सुह- दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स इति तथा बन्ध-मोक्ष- सुख-दुःखप्रार्थना तत्साधनोपादानपरित्यागद्वारेण भेदाभेदात्मकस्यैव जीवद्रव्यस्य भवति बालाद्यात्मकपुरुषद्रव्यवत् । न च जीवस्य पूर्वोत्तरभवानुभवितुरभावाद् बन्धमोक्षभावाभावः, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मकस्य तस्यानाद्यनन्तस्य 10 प्रसाधितत्वात् [प्र० खण्डे पृ० ३१९ तः ३२८] ।
तथाहि - मरणचित्तं भाव्युत्पादस्थित्यात्मकम् मरणचित्तत्वात् जीवदवस्थाविनाशचित्तवत् । तथा जन्मादी चित्तप्रादुर्भावोऽतीतचित्तस्थितिविनाशात्मकः चित्तप्रादुर्भावत्वात्, मध्यावस्थाचित्तप्रादुर्भाववत्, अन्यथा तस्याप्यभावप्रसक्तिः । न चास्याभाव: हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्त्तात्मकस्यानन्यवेद्यस्यान्तर्मुखाकारतया स्वसंवेदनाध्यक्षतः विगत यानी उत्पाद - विगमात्मक वस्तु जिस का उक्त प्रकार से भेद प्रतीत होता है उस का 15 सम्बन्ध भेदाभेदपरिणतिरूप होता है क्योंकि बाह्य प्रत्यक्ष से जाति आदि की तरह बालादि भावों में भी भेदाभेदात्मक प्रतीति होती है ।। ४६ ।।
[ भेदाभेदात्मक जीवद्रव्य को दिखाने के लिये दृष्टान्त ]
अवतरणिका :- बाह्य की तरह आन्तरिक प्रत्यक्ष से भी भेदाभेद की प्रतीति होती है अतः वस्तु भेदाभेदात्मक होती है, दृष्टान्त और दान्तिक के उपसंहार द्वारा इस का प्रतिपादन मूलग्रन्थकार करते हैं
गाथार्थ :- वे जो भूतभावि दोष-गुण की ( क्रमशः) जुगुप्सा और स्वीकार ( भिन्नाभिन्न) है उसी तरह जीव की बन्ध-मोक्ष- सुख- प्रार्थना भी ( भिन्नाभिन्न) हैं ।। ४६ ।।
व्याख्यार्थ :- जिस तरह भूत-भविष्यद् दोषों की जुगुप्सा और गुणों के स्वागत के द्वारा यह सिद्ध होता है कि पुरुष भेदाभेदात्मक है; वैसे ही दान्तिक में भी बन्ध - मोक्ष, सुख-दुःख, प्रार्थना ये सब, उन के उपायों के स्वागत या त्याग के द्वारा भेदाभेदस्वरूप जीवद्रव्य में होते हैं, उदा० बालादिस्वरूप पुरुषद्रव्य है । ऐसा हमने प्रथमखंड
25 बोलना मत कि - ' पूर्व- उत्तर भवों के अनुभव करनेवाला कोई जीवद्रव्य सिद्ध नहीं है'
ही कर दिया है।
में ( पृ०३१९ से ३२८) उत्पाद - विगम - स्थैर्यात्मक अनादि-अनन्त जीवद्रव्य की सिद्धि पहले [ उत्पादादि के द्वारा आत्मतत्त्व की स्थिति ]
जीवसिद्धि के लिये कुछ यहाँ भी याद कर ले जन्म और जन्मान्तर के बीच एक अनुगत पदार्थ सिद्ध हो जाय तो आत्मा सिद्ध होगा । उस के लिये यह अनुमानप्रयोग मरणसमयवर्त्ती (यानी 30 विनाशाभिमुख) चित्त ( = चेतना) भावि उत्पत्ति-स्थिति- संलग्न है क्योंकि मरणचित्तात्मक है जैसे जीवंत अवस्था में विनाशचित्त (युवाचित्त उत्पत्ति के पहले बालचित्तविनाश) । इस से अग्रिमभवचेतना का ऐक्य
तह बंध - मोक्ख - सुह- दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स । । ४६ ।।
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