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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
(मूलम् - ) सब्भावेऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अत्थि णत्थि अवत्तव्वयं च दवियं वियप्पवसा । ।४० ॥ यस्य देशिनो देशोऽवयवः देशो धर्मो वा सद्भावे नियतो निश्चितः अपरस्तु असद्भावे असत्त्वे तृतीयस्तु उभयथा इत्येवं देशानां सदसदवक्तव्यव्यपदेशात् तद् अपि द्रव्यमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं 5 च भवति विकल्पवशात्। तथाभूतविशेषणाध्यासितस्य द्रव्यस्यानेन प्रतिपादनादपरभङ्गव्युदासः। एते च परस्पररूपापेक्षया सप्तभंग्यात्मकाः प्रत्येकं स्वार्थं प्रतिपादयन्ति नान्यथेति प्रत्येकं तत्समुदायो वा सप्तभंगात्मकः प्रतिपाद्यमपि तथाभूतं दर्शयतीति व्यवस्थितम् ।
अत्र चाद्यभंगकस्त्रिधा, द्वितीयोऽपि त्रिधैव, तृतीयो दशधा, चतुर्थोऽपि दशधैव, पञ्चमादयस्तु त्रिंशदधिकशतपरिणामाः प्रत्येकं श्रीमन्मल्लवादिप्रभृतिभिर्दर्शिताः । पुनश्च षड्विंशत्यधिकचतुर्दशशतपरिणामास्त एव च द्व्यादिसंयोगकल्पनया कोटीशो भवन्तीत्यभिहितं तैरेव । अत्र तु ग्रन्थविस्तरभयात् तथा न प्रदर्शितास्तत एवावधार्याः ।
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गाथार्थ :- जिस द्रव्य का एक अंश 'सत्' रूप से, दूसरा 'असत्' रूप से, तीसरा ( सत्-असत्) उभयरूप से सह विवक्षित होता है, (अवक्तव्य रूप से) वह द्रव्य विकल्पवश ( = विवक्षाधीन) 'स्याद् अस्ति स्याद् नास्ति स्याद् अवक्तव्य' हो जाता है ।।
व्याख्यार्थ :- जिस अवयवी का देश यानी अवयव अर्थात् देशरूप अथवा धर्मरूप अवयव सत्स्वरूप से निश्चित किया, दूसरा अंश 'असत्' रूप से तय हुआ, तीसरा उभयथा यानी एक साथ सत्-असत् विवक्षित करने पर अवक्तव्यरूप से तय हुआ, तब उन तीनों का एक मिलित भंग सत्-असत्-अवक्तव्य रूप से निर्दिष्ट होने के कारण उन से अभिन्न द्रव्य भी विकल्प (= तथाविध विवक्षा) अनुसार 'स्याद् अस्ति स्याद् नास्ति स्याद् अवक्तव्य' व्यपदेश को प्राप्त होता है । यहाँ अभेदनिर्देश से सत्त्वादिविशेषणों 20 से आश्लिष्ट द्रव्य का प्रतिपादन किया है उस से अन्य भंगों में इस भंग के समावेश की सम्भावना का निरसन हो जाता है। ये प्रत्येक भंग परस्पर सापेक्ष सप्तभंगी से अभिन्न रह कर अपने अपने अर्थों का प्रतिपादन करते हैं, भिन्न रह कर और निरपेक्ष बन कर नहीं। इस ढंग से ये प्रत्येक भंग अथवा उन का समुदायरूप सप्तभंगी बनती है और उन के प्रतिपाद्य अर्थ भी अन्योन्य कथंचिद् अभेदभाव रखते हैं यह इस गाथा से प्रदर्शित किया गया है जो सुव्यवस्थित है। [ मल्लवादीसूरि के ग्रन्थ में कोटिकोटी उपभेद ]
द्वादशारनयचक्र ग्रन्थ के कर्ता श्रीमान् मल्लवादिसूरि आदि पूर्वाचार्यों ने इन भंगों के उपभेद अनेक दर्शाये हैं जैसे :- प्रथम भंग के तीन प्रकार, दूसरे के भी तीन, तीसरे के दश, चौथे के भी दश, पाँच-छ-सात के एक एक के एकसो त्रीश । तथा, इन उपभेदों के भी द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि रचना के द्वारा चौदह सो छव्वीस ( १४२६ ) होते हैं और आगे चल कर उपभेदों के प्रतिभेदों से 30 कोटिकोटी संख्या होती है। ऐसा उन महापुरुषोंने अपने द्वादशारनयचक्र आदि ग्रन्थों में कहा है । यहाँ ग्रन्थ विस्तार भय से वे सब नहीं कहते हैं, विस्तरार्थी उन ग्रन्थों में देख सकते हैं ।
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