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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ (मूलम्-) अत्यंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयवाईहिं।
वयणविसेसाईयं दव्वमवत्तव्वयं पडइ।।३६।। अस्यास्तात्पर्यार्थः - अर्थान्तरभूत: पटादिः निजो घट: ताभ्यां निजार्थान्तरभूताभ्यां सदसत्त्वं घटवस्तुनः प्रथम-द्वितीयभङ्गनिमित्तं प्रधान-गुणभावेन भवतीति प्रथम-द्वितीयौ भङ्गौ १-२ । यदा तु द्वाभ्यामपि युगपत् 5 तद् वस्तु अभिधातुमभीष्टं भवति तदा अवक्तव्यभङ्गकनिमित्तम्, तथाभूतस्य वस्तुनोऽभावात् प्रतिपादकवचनातीतत्वात् तृतीयभङ्गसद्भावः वचनस्य वा तथाभूतस्याऽभावाद् अवक्तव्यं वस्तु-३।
[भङ्गत्रयसमर्थकाः षोडशापेक्षाभेदाः ] 'तथाहि- असत्त्वोपसर्जनसत्त्वप्रतिपादने प्रथमो भङ्गः । तद्विपर्ययेण तत्प्रतिपादने द्वितीयः। द्वयोस्तु धर्मयोः प्राधान्येन गुणभावेन वा प्रतिपादने न किञ्चिद् वचः समर्थम् । यतो न तावत् समासवचनं 10 से कहते हैं -
गाथार्थ :- (मूलगाथा - पूर्वार्ध में अन्त्य अक्षर 'हिं' के बदले ‘टुं' ऐसा पाठ टीकाकार एवं उपाध्यायश्री यशोविजय महाराज को मान्य है) स्व से एवं पर से एवं उभय से एक साथ विवक्षित करने पर (सत् असत् और) वचनविशेषातीत द्रव्य अवक्तव्यता को प्राप्त करता है।।३६ ।।
व्याख्यार्थ :- अर्थान्तरभूत यानी स्वभिन्न वस्त्रादि, निज यानी स्वभूत घट (यह सब विवक्षाधीन 15 है।) उन दोनों स्व और पर को क्रमशः प्रधान-गौणतया विवक्षित किये जाने पर घटवस्तु का 'सत्'
यह प्रथमभंग होगा और ‘असत' यह दूसरा भङग होगा। उक्त गाथा का तात्पर्यार्थ यह है कि स्वरूप को प्रधान और पररूप को गौण कर के घटादि को देखा जाय तो 'स्याद् अस्ति' यानी घट 'कथंचित् सत्' ज्ञात होगा एवं पररूप वस्त्रादि को प्रधान कर के घट के स्वरूप को गौण कर के जब घट
जिज्ञासा की जाय तो 'स्याद् नास्ति' यानी घट 'कथंचिद् असत् है' ऐसा ज्ञात होगा। दोनों भंगो 20 का मूलाधार क्रमशः प्रधान = गौणभाव से तथाभूत वस्तु यानी सत्त्व और असत्त्व है। (१-२)
जब दोनों निमित्त को प्राधान्य दे कर वस्त घट की एक साथ विवक्षा हो तब वह वस्त अवक्त का मूलाधार बनी रहेगी। इस के दो कारण हैं - (१) एक साथ दोनों को प्रधान कर के कही जा सके ऐसी कोई वस्तु नहीं है, अगर है तो भी प्रतिपादक वचन मर्यादा से अतीत है। अतः
तीसरा भंग फलित होगा। (२) अथवा, उभय की एक साथ विवक्षा के द्वारा घट का निरूपण करना 25 है किन्तु वैसा कोई वचन नहीं मिलता, फलतः घट-वस्तु अवक्तव्य बन जायेगी।३।
[सप्तभंगी के प्रथम तीन भंगो का स्पष्टीकरण-१ ] तृतीय भंग का विस्तार :- पहला भंग तो असत्त्व को गौण रख कर सत्त्व का प्रतिपादन करता है और उस से विपरीत सत्त्व को गौण कर के असत्त्व का प्रतिपादन दूसरा भंग करता है। अब 7. श्रीभगवतीसूत्र - द्वा. नयचक्र-अनुयोगद्वार -प्रमेयरत्नकोश-तत्टीका-तत्त्वार्थभाष्य-विशेषावश्यकभाष्य-दिगम्बरीयप्रवचनसार-तत्टीकाइत्यादिग्रन्थेषु तृतीयो भंगोऽवक्तव्यतयोक्तः । श्वेता० प्रमाणनयतत्त्वालोक - अलंकार-रत्नाकरावतारिका-स्याद्वादमञ्जरी-नयोपदेशदिगम्बरीयपञ्चास्तिकाय-तत्त्वार्थराजवार्त्तिक-श्लोकवार्त्तिक-सप्तभंगीतरंगिण्यादिग्रन्थेषु चतर्थस्थानेऽवक्तव्यभंगो निरूपितः। विशेषार्थिभिः पूर्वसंस्करणे पृ.४४२-४३ मध्ये टीप्पणी द्रष्टव्या।
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