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खण्ड-३, गाथा-३४
प्राप्नुयात् । अत्रापि पूर्ववत् तदग्रहे तदग्रहाद् भेदरूपताया अप्यभाव इति भावः । न चैवमेवास्त्विति वक्तव्यम् सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेरिति भेदाभेदरूपमेव वस्त्वस्तु ।।३३।। अस्यैवोपसंहारार्थमाह(मूलम्-) वंजणपज्जायस्स उ पुरिसो ‘पुरिसो'त्ति णिच्चमवियप्पो।
___बालाइवियप्पं पुण पासइ से अत्थपज्जाओ।।३४।। शब्दपर्यायेणाऽविकल्पः पुरुषो बालादिना त्वर्थपर्यायेण सविकल्पः सिद्धः इति गाथातात्पर्यार्थः। 'व्यञ्जयति व्यनक्ति वाऽर्थान् इति व्यञ्जनम् = शब्दः, न पुनः शब्दनयः, तस्य ऋजुसूत्रार्थनयविषयत्वात्।' इति केचित् - तस्य पर्याय: आ जन्मनो मरणान्तं यावदभिन्नस्वरूपपुरुषद्रव्यप्रतिपादकत्वम् तद्वशेन तत्प्रतिपाद्यं वस्तुस्वरूपमत्र ग्राह्यमुपचारात्। एवं च द्वितयमप्येतत् पुरुषः ‘पुरुषः' इति अभेदरूपतया न भिद्यते - व्यञ्जनपर्यायमतेन पुरुषवस्तु सदा अविकल्पम् भेदं न प्रतिपद्यत इति यावत् । बालादिविकल्पं 10 = बालादिभेदं पुनस्तस्यैव पश्यति अर्थपर्यायः ऋजुसूत्राद्यर्थनयः। अत्रापि विषयिणा विषयः ऋजुसूत्राद्यर्थका लाभ मिलेगा नहीं, सिर्फ उस पुरुष में द्रव्याभिन्नता ही प्राप्त होगी। यहाँ भी प्रथम व्याख्या की तरह एक का (अभेद का) ग्रहण न होने पर दूसरा (यानी भेद) भी गृहीत होता नहीं, अतः भेदरूपता का अभाव प्रसक्त होगा। ऐसा भले हो - यह बोलना मत, क्योंकि भेद या अभेद का उच्छेद होने पर सभी व्यवहारों का उच्छेद प्राप्त होगा। निष्कर्ष, सकल वस्तु भेदाभेदोभयरूप 15 होती है।।३३ ।।
इस के उपसंहार में गाथा ३४ में ग्रन्थकार कहते हैं -
गाथार्थ :- व्यञ्जनपर्याय से तो पुरुष हरहमेश अविकल्पतया 'पुरुष' है। उस के बालादि विकल्प को तो अर्थपर्याय देखता है।।३४ ।।
व्याख्यार्थ :- गाथा का तात्पर्यार्थ यह है कि शब्दपर्याय की नजरों में पुरुष अविकल्प (अभेदरूप) 20 है जब कि अर्थपर्याय की नजरों में पुरुष बालादि प्रकार से सविकल्प (सभेद) सिद्ध है। _ 'व्यञ्जन' की व्युत्पत्ति :- अर्थों को व्यक्त करे यह है व्यञ्जन, यानी शब्द, शब्दनय नहीं। शब्द तो ऋजुसूत्ररूप अर्थनय का विषय है ऐसा कुछ विद्वानों का अभिप्राय है। इस लिये व्यञ्जन का अर्थ शब्दनय नहीं है। ‘पर्याय' पद का अर्थ :- जन्म से ले कर मरणपर्यन्त अभिन्न (= एकात्मक) पुरुषद्रव्य का प्रतिपादन करनेवाला - ऐसा पर्याय व्यञ्जन का पर्याय है। यहाँ व्यञ्जन का अर्थ यद्यपि शब्द 25 ही है किन्तु उपचार से यहाँ प्रस्तुत में शब्द के द्वारा दर्शित वस्तुस्वरूप (अभेद पुरुष) का उल्लेख समझना होगा। शब्द और उस का अर्थ इन दोनों ही अर्थों को लक्ष में ले कर ग्रन्थकार गाथा में कहते हैं पुरुष (अर्थ) एवं 'पुरुष' इस प्रकार शब्द अभेदात्मक होने से व्यञ्जनपर्याय के मत में भेद नहीं रखते, अतः पुरुषात्मक वस्तु णिच्चमवियप्पो = सदा अविकल्प यानी भेदमुक्त रहता है।
अर्थपर्याय यानी जो ऋजुसूत्रादि अर्थनय हैं उन की नजरों में उसी पुरुष के बालादिविकल्प यानी 30 बालादि भेद दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ व्याख्या में 'अर्थपर्याय' पद का 'ऋजुसूत्रादिअर्थनय' ऐसा अर्थ
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