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खण्ड-३, गाथा-३२
३२९ ज्ञानजनकत्वे एक वर्णावरणापाये सर्वेषां समानदेशत्वेनाऽभिव्यक्तत्वात् युगपत् सर्वश्रुतिप्रसक्तिरित्युक्तं प्राक् (प्रथम खण्डे पृ०१५२, अस्मिन् खण्डे-३२०-५)। इन्द्रियसंस्कारपक्षेऽपि पूर्वप्रतिपादितमेव (प्र० खण्डे १५६४) दूषणमनुसतव्यम् । किञ्च, यद्यनवगतसम्बन्धा वर्णा अर्थप्रत्यायकास्तदा नालिकेरद्वीपवासिनोऽप्युपलभ्यमाना अर्थावगतिं विदध्युः। अथावगतसम्बन्धाः, तथा सति पदस्य स्मारकत्वमेव स्याद् न वाचकत्वम् । तथा चानधिगतार्थाधिगमहेतुत्वाभावात् न प्रमाणता भवेत्। तदुक्तम् [श्लोव्वा शब्द०श्लो॰११७] - 5
पदं त्वभ्यधिकाभावात् स्मारकान्न विशिष्यते। अथाधिक्यं भवेत् किञ्चित् स पदस्य न गोचरः ।। तन्न मीमांसकमतेनापि वर्णानां शब्दत्वम्।।
कथं तर्हि वर्णाः शब्दरूपतां प्रतिपद्यन्ते ? उक्तम् (प्र० खण्डे ६२४-१) अत्र परिमितसंख्यानां पुद्गलद्रव्योपादानाऽपरित्यागेनैव परिणतानामश्रावणस्वभावपरित्यागाऽवाप्तश्रवणस्वभावानां विशिष्टानुक्रमयुक्तानां वर्णानां वाचकत्वात् शब्दत्वम् अन्यथोक्तदोषानतिवृत्तेः। वैशेषिकपरिकल्पितपदादिप्रक्रिया त्वनुभव- 10 बाधितत्वादयुक्ता। न च निरन्वयविनाशिनां विज्ञानहेतुता सम्भवतीत्यसकृत् प्रतिपादितम्। षटक्षणावनहीं सभी पुरुषों के लिये सर्व वर्ण सदा के लिये अनभिव्यक्त होने के कारण ज्ञानजनक बन जायेंगे, क्योंकि अनभिव्यक्त वर्ण न किसी पुरुष से नजदीक हैं न तो दूर हैं। यदि अभिव्यक्त वर्णों को ज्ञानजनक मानेंगे तो एक वर्ण के आवरण दूर होने पर सभी के लिये दूर हो जाने से (एक व्यक्ति के लिये पर्दा हटाने पर सभी व्यक्ति को जैसे पुरोवर्ती दृश्य दिखाई देता है वैसे) समानदेशवर्ती होने से सभी 15 पुरुषों के लिये वर्ण अभिव्यक्त हो जायेंगे, फलतः एक साथ उन सभी को सर्व वर्णश्रवण प्रसक्त होगा। पहले यह कह दिया गया है। वर्ण द्वारा जैसे स्फोट संस्कार की वार्ता असंगत ठहरायी है वैसे इन्द्रिय के संस्कार की वार्ता के लिये भी पूर्वोक्त दूषण (प्र० खण्डे १५६-१८) यहाँ समझ लेना।
और भी विकल्प हैं - यदि सम्बन्ध के अज्ञात रहते हुए भी वर्ण अर्थबोधकारक माने जायेंगे तो नालिकेरद्वीपवासी लोगों को भी (जिन्हें शब्द-अर्थ का सम्बन्ध अज्ञात हैं उन्हें) वर्णों का उपलम्भ 20 होने पर अर्थबोध प्रसक्त होगा। यदि ज्ञातसम्बन्धवाले वर्षों से अर्थबोध मानेंगे तो मतलब यही निकला कि पद सिर्फ अर्थस्मृति के ही जनक हैं, वाचक नहीं हैं। इस स्थिति में पूर्वानुभूत अर्थ के ही स्मृतिबोध कारक ये वर्ण अनधिगत अर्थ बोध हेतु न होने से प्रमाण ही नहीं हो पायेंगे। कहा है श्लोकवार्त्तिक में (शब्दप० श्लो० १०७) - ____ 'अधिकबोधकारकता के विरह में पद तो स्मारक से भिन्न नहीं हुए। यदि कुछ अधिक बोधकारक 25 बनते हैं तो वह पद का गोचर नहीं रह पायेगा।” सारांश, मीमांसकमताभिप्रेत वर्गों में बोधकता न होने से शब्दता भी हो नहीं सकती।
[जैनदर्शनानुसार वर्णों की शब्दरूपता संगत ] प्रश्न :- फिर वर्णसमूह शब्दरूपता कैसे हाँसिल करते हैं। (शाब्द बोध के जनक वर्ण नहीं है। शब्द है, तो क्षणिक वर्षों से एक शब्द बनेगा कैसे - यह प्रश्न का हार्द है।
30 उत्तर :- पहले कह आये हैं (प्र० खण्डे ६२४-२६) – शब्द पुद्गलद्रव्य (= भूतात्मक) रूप हैं। वर्णों से शब्द इस प्रकार बनता है - पुद्गलद्रव्यरूप उपादान को न छोडते हुए, परिमितसंख्यावाले वर्ण पूर्वकाल में अश्रावणस्वभाववाले होते हैं किन्तु ओष्ठादिव्यापार से श्रावणस्वभाव में परिणत होते हैं, उन में विशिष्ट
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