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खण्ड-३, गाथा - ३२
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बोधयति' इत्यभ्युपगतम् तदपि प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य सादृश्यनिबन्धनत्वेनात्र विषये प्रतिपादितत्वाद् असङ्गतम्; एकगोव्यक्तौ संकेतितात् गोशब्दात् गोव्यक्त्यन्तरे अन्यत्रान्यदा च नित्यत्वमन्तरेणापि प्रतिपत्तिर्यथा संभवति तथा प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च । नातोऽपि स्फोटस्य प्राग् व्यञ्जकात् सत्त्वसिद्धिरिति । 'नादेनाहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । आवृत्तपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते । । ' ( वाक्य० प्र० का० श्लो० ८५) इति भर्तृहरिवचो निरस्तं द्रष्टव्यम् ।
यदपि ‘विभिन्नतनुषु वर्णेष्वभिन्नाकारं श्रोत्रान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यध्यक्षं स्फोटसद्भावमवबोधयति' इत्युक्तम् तदप्यसारम्; घटादिशब्देषु परस्परव्यावृत्तानेकवर्णव्यतिरिक्तस्य स्फोटात्मनोऽर्थप्रत्यायकस्यैकस्याऽध्यक्षप्रतिपत्तिविषयत्वेनाऽप्रतिभासनात् । न चाभिन्नावभासमात्राद् अभिन्नार्थव्यवस्था, अन्यथा दूरादविरलानेकतरुष्वेकतरुबुद्धेरेकत्वव्यवस्थाप्रसक्तेः । न चाविरलानेकतरुष्वेकत्वबुद्धेर्बाध्यमानत्वाद् नैकत्वव्यवस्थापकत्वम् स्फोटप्रतिभासबुद्धेरपि बाध्यत्वस्य दर्शितत्वात् ।
न चैकत्वावभासः स्फोटसद्भावमन्तरेणानुपपन्नः, वर्णत्वान्त्यवर्णविषयत्वेनेनाप्येकत्वावभासस्योपपद्यमानत्वात् समझना ।) ' तो यह भी असंगत है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा ज्ञान ऐक्यमूलक या नित्यत्वमूलक नहीं होता किन्तु इस प्रस्ताव में वह सादृश्यमूलक होने का प्रतिपादन किया जा चुका है। हमने पहले कह दिया है कि स्फोट में नित्यत्व न होने पर भी सादृश्यमूलक प्रतीति वैसे ही शक्य है जैसे कि किसी एक देश-काल में एक गो-व्यक्ति के लिये संकेतविषय किये गये 'गो' शब्द से अन्य देश-काल में भी नित्यत्व 15 के बिना भी अन्य गो-व्यक्ति की प्रतीति हो सकती है। आगे भी इस तथ्य को कहेंगे। सारांश, प्रत्यभिज्ञा प्रमाण से भी व्यञ्जकवर्णोच्चारपूर्व में स्फोट तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती । अत एव भर्तृहरि विद्वान् ने वाक्यपदीय में जो कहा है
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' अन्त्य ध्वनि (वर्ण) के साथ नाद ( = स्फोट ? ) के द्वारा बीजाधानप्राप्त एवं पुनः पुनः परिपाकयुत बुद्धि में शब्द प्रतिभासित होता है ।।' यह कथन भी निरस्त हो जाता है ।
[ स्फोट के प्रत्यक्ष की वार्त्ता असार ]
स्फोटवादी जो यह कहता है कि ' भिन्न भिन्न स्वरूपवाले वर्णों वर्णों में जो एकाकार, श्रोत्र के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करनेवाला प्रत्यक्ष उदित होता है वह एकाकार स्फोट के अस्तित्व का बोधक है' यह भी निःसार है । जब घटादि शब्द सुनते हैं तब परस्पर भिन्न ( क्रमिक ) अनेक घकार आदि वर्णों का ही श्रावणप्रत्यक्ष होता है; वहाँ उन वर्णों से पृथक् अर्थबोधकारक एक स्फोटात्मक 25 विषय प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता । उपरांत, यह ज्ञातव्य है कि एकाकार अवभास मात्र से एकाकार अर्थ की सिद्धि नहीं हो जाती । वैसा मान लेंगे तब तो सान्तर अवस्थित अनेक वृक्षों में दूर से एकत्व बुद्धि उदित होने से वहाँ एकत्वसिद्धि प्रसक्त होगी। ऐसा कहें कि 'सान्तर स्थित अनेक वृक्षों में दूर से जो एकत्व बुद्धि होती है निकट जाने पर उस का बाध होता है, अतः उस एकत्वबुद्धि से एकत्व का निश्चय नहीं हो सकता ।' यहाँ भी तुल्य है स्फोटप्रतिभासक 30
बुद्धि की बाध्यता हम दिखा चुके हैं।
स्फोट की सत्ता के बिना एकत्व अवभास की अनुपपत्ति नहीं है, वर्णत्वविषयत्व से अथवा
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