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खण्ड-३, गाथा-३२
३१३ न चान्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णानां क्रमोत्पादे सत्यर्थप्रत्यायकः, पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्यनुग्राहकत्वाऽयोगात्। यतो नान्त्यवर्णं प्रति जनकत्वं पूर्ववर्णानां तदुपकारित्वम् वर्णाद् वर्णोत्पत्तेरभावात् – प्रतिनियतस्थानकरणादिसम्पाद्यत्वाद् वर्णानाम्, वर्णाभावेऽपि च वर्णोत्पत्तिदर्शनाद् न वर्णजन्यत्वम् । अथार्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं पूर्ववर्णानामन्त्यवर्णं प्रत्युपकारकत्वम्- एतदप्ययुक्तम्; अविद्यमानानां सहकारित्वानुपपत्तेः। अत एव प्राक्तनवर्णवित्तीनामपि सहकारित्वमयुक्तम्।
5 न च पूर्ववर्णसंवेदनप्रभवसंस्काराः तत्सहायतां प्रतिपद्यन्ते; यतः संस्काराः स्वोत्पादकविज्ञानविषयस्मृतिहेतवो नार्थान्तरज्ञानमुत्पादयितुं समर्थाः। न हि घटज्ञानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृतिं विदधद् दृष्टः । न च तत्संस्कार प्रभवाः स्मृतयः सहायतां प्रतिपद्यन्ते, युगपदयुगपद्विकल्पनानुपपत्तेः। न हि स्मृतीनां युगपदुत्पत्तिः अयुगपदुत्पन्नानां वाऽवस्थितिरस्ति। न च समस्तसंस्कारप्रभवैका स्मृतिस्तत्सहकारिणी, परस्परविरुद्धानेकपदार्थाऽनुभवप्रभवप्रभूतसंस्काराणामप्येकस्मृतिजनकत्वप्रसक्ते नेकवर्णसंस्कराजत्वं स्मृते: 10 संभवतीति कुतोऽस्या अन्त्यवर्णसहकारित्वम् ? न चान्यविषया स्मृतिरन्यत्र प्रतिपत्तिं जनयति खदिरव्यानहीं क्योंकि शाब्दबोध में तो अनुभव होता है कि प्रतिनियत क्रमिक वर्णों के श्रवण के बाद अर्थबोध होता है।
[चरमवर्ण से अर्थबोध की अनुपपत्ति ] व्यस्त वर्ण भी अर्थबोधक नहीं हो सकते। 'वर्णों की क्रमशः उत्पत्ति होती है फिर भी पूर्व- 15 पूर्व वर्णसहकृत चरम वर्ण को - अर्थबोधक मानेंगे - तो यह असंभव है क्योंकि पूर्व-पूर्व वर्ण चरम वर्ण के उपकारी बन नहीं सकते। उपकारित्व क्या है ? अन्त्य वर्ण के प्रति पूर्ववर्णों का जनकत्व ? प्रस्तुत में ऐसा उपकारित्व अघटित है क्योंकि एक वर्ण से दूसरे वर्ण की उत्पत्ति नहीं होती। वर्णों की उत्पत्ति तो नियत स्थान-करणों से सम्पन्न होती है, एवं प्रथमादि वर्गों की उत्पत्ति वर्गों के बिना ही होती है यह दिखता है अतः वर्गों में वर्णजन्यत्व नहीं होता। यदि उपकारित्व ऐसा है कि अन्त्य 20 वर्ण से अर्थबोध उत्पन्न होने में पूर्व वर्ण अन्त्य वर्ण का सहकारी बनेगा - तो वह गलत है क्योंकि अन्त्य वर्णकाल में पूर्व वर्ण विद्यमान ही नहीं, फिर सहकारी कैसे होंगे ? पूर्व वर्ण विद्यमान ही नहीं इसी लिये पूर्ववर्णों का ज्ञान भी अन्त्य वर्ण के प्रति अर्थबोधजनन में सहकारी नहीं हो सकते, क्योंकि पूर्ववर्णज्ञान भी क्षणिक होने से अनुपस्थित है। यदि कहा जाय -
[ संस्कार या तज्जन्य स्मृति का सहकारित्व अघटित ] 'पूर्ववर्ण बोधजन्य संस्कार अर्थबोधजनन में चरम वर्ण का सहकारी बनेगा।' – तो यह भी सम्भव नहीं, क्योंकि संस्कार तो सिर्फ स्वजनकज्ञान के विषय की स्मृति कराने में ही हेतु बनता है, वह स्मृति भिन्न भिन्नविषयक (शाब्दरूप) ज्ञानोत्पादन के लिये समर्थ नहीं। उदा० घटज्ञानजन्य संस्कार वस्त्र की स्मृति करता हुआ दृष्टिगोचर नहीं है। यदि कहें – 'तत्तत्संस्कारजन्य स्मृतियाँ ही सहकारी बन कर चरम वर्ण को सहायता करेगी' - तो यह भी शक्य नहीं. क्योंकि यहाँ क्रम यौगपद्य के 30 विकल्पों का समाधान नहीं मिलता। देखिये - हर एक क्रमिक वर्णज्ञानजन्य संस्कार से उत्पन्न होनेवाली क्रमिक स्मृतियाँ एक साथ उत्पन्न नहीं हो सकती, न तो क्रमिकोत्पन्न स्मृतियों का एकसाथ अवस्थान
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