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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१
पृतपरशोः कदिरच्छेदक्रियाजनकत्वप्रसक्तेः । न चान्यवर्णनिरपेक्ष एव गौः इत्यत्रान्त्यो वर्णः ककुदादिमदर्थ प्रत्यायकः पूर्ववर्णोच्चारणवैयर्थ्यप्रसक्तेः घटशब्दान्तव्यवस्थितस्यापि तत्प्रत्यायकत्वप्रसक्तेश्च। तस्माद् न वर्णाः समस्त-व्यस्ता अर्थप्रत्यायकाः सम्भवन्ति।
अस्ति च गवादिशब्देभ्यः ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिरिति तदन्यथानुपपत्त्या वर्णव्यतिरिक्तः स्फोटात्मा निरवयवोऽक्रमः स्फुटमवभातीति तस्याऽध्यक्षतोऽपि सिद्धिः। तथाहि- श्रवणव्यापारानन्तरभाविन्यभिन्नार्थावभासा संविदनुभूयते। न चासौ वर्णविषया, वर्णानां परस्परव्यावृत्तरूपत्वाद् एकावभासजनकत्वविरोधात् तदजनकस्याऽतिप्रसङ्गतस्तद्विषयत्वानुपपत्तेः। न चेयं सामान्यविषया, वर्णत्वव्यतिरेकेणाऽपरसामान्यस्य गकार-औकार-विसर्जनीयेष्वसम्भवात् वर्णत्वस्य च प्रतिनियतार्थप्रत्यायकत्वाऽयोगात्। न चेयं भ्रान्ता,
होता है - फिर कैसे स्मृतियाँ सहकारी बनेगी ? यदि कहें – 'समस्त संस्कारों से एक ही स्मृति 10 उत्पन्न होगी जो अन्त्य वर्ण की सहकारिणी बनेगी' - तो यह असम्भव है, 'ग'-'औ'-':' इत्यादि
परस्पर विरुद्ध अनेक वर्ण के अनुभव से जन्य संस्कार भी परस्पर विरुद्ध अनेक ही होंगे, अतः वे एक स्मृति के उत्पादक नहीं हो सकते। यदि वैसा मानेंगे तो परस्पर विरुद्ध भाव-अभाव आदि अनेक पदार्थों के अनुभव से जन्य अनेक संस्कारों में भी एक स्मृतिजनकत्व प्राप्त होगा। यह सोच
कर अब बोलो कि स्मृति अन्त्यवर्ण सहकारी कैसे बनेगी ? ऐसा भी शक्य नहीं है कि एक घटादिविषयक 15 स्मृति अन्यविषय का बोध करा सके। शक्य मानेंगे तो खदिरवृक्षच्छेदन के लिये प्रयुक्त परशु में
कदिरछेदनक्रियाजनकत्व आ पडेगा। ऐसा शक्य नहीं कि पूर्व पूर्व वर्ण निरपेक्ष ‘गौः' शब्द का अन्त्य वर्ण (विसर्ग) खूध आदि उपांगवाले अर्थ का बोधन करे; क्योंकि तब 'ग' आदि पूर्ववर्णोच्चारण में व्यर्थतादोष प्राप्त होगा और यदि केवल विसर्ग से गौ का भान होगा तो 'घटः' यहाँ घटपदोत्तर विसर्ग से भी गौ का भान प्रसक्त होगा। निष्कर्ष, व्यस्त या समुदित वर्षों से अर्थबोध का सम्भव है नहीं।
[ अन्यथा अनुपपत्ति से स्फोटातत्त्व की सिद्धि ] इतना तो पक्का है कि गौ-आदिशब्दों से खूध आदि उपांगवाले जनावर की प्रतीति होती है। व्यस्त-समस्त वर्षों से इस प्रतीति की उपपत्ति शक्य नहीं, अतः स्वीकारना होगा कि वर्णभिन्न अर्थप्रतिपत्तिहेतुभूत स्फोटनामक पदार्थ ही शब्द है। स्फोट की सिद्धि प्रत्यक्ष से होती है - श्रावणप्रत्यक्ष
में वर्णभिन्न निरवयव अक्रमिक स्फोट पदार्थ स्पष्ट ही अनुभूत होता है। देखिये- श्रोत्रेन्द्रिय-व्यापार 25 के बाद तुरंत अभिन्न एक अर्थभासक संवेदन का अनुभव होता है। वह वर्णविषयक नहीं होता. क्योंकि
वर्ण स्वयं एक-दूसरे से भिन्न होने के कारण, एकवस्तुभानजनक होने में विरोध आयेगा। अजनक होने पर भी उसको तत्प्रतीति का विषय मानेंगे तो अजनक सभी पदार्थ तत्प्रतीति के विषय बन जाने की आपत्ति होगी। वह प्रतीति एकावभाससंगति के लिये वर्णसामान्य विषयक मानना अनुचित है।
कारण :- यहाँ गकार-औकार-विसर्ग में वर्णत्व के सिवा और कोई सर्ववर्णसाधारण सामान्य नहीं है, 30 वर्णत्वरूप सामान्य सर्ववर्णसाधारण होने से प्रतिनियत एकवस्तु का बोधकत्व यहाँ सम्भव नहीं होगा।
[ स्फोट-प्रत्यक्ष को भ्रान्त मानने पर मुसीबतें ] स्फोट की प्रत्यक्ष प्रतीति भ्रान्त नहीं है क्योंकि उस का कोई बाधक नहीं है। अबाधितप्रतीतिविषय
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