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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
तानागतव्यवच्छिन्नाभिन्नार्थपर्यायरूपत्वात् । तद्विषया नया अपि 'अर्थगतो विभागोऽभिन्नः' इत्युच्यते। भाज्यो व्यञ्जनविकल्प इति । विकल्पितः शब्दपर्यायो भिन्न अभिन्नश्चानेकाभिधान एक: एकाभिधानश्चैक इति कृत्वा समानलिङ्ग-संख्या - कालादिरनेकशब्दो घटः कुटः कुम्भः इत्यादिक एकार्थ इति शब्दनयः । समभिरूढस्तु भिन्नाभिधेयौ घट- कुटशब्दौ भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् रूप-रसादिशब्दवत् इत्येकार्थ एकशब्द इति 5 मन्यते । एवंभूतस्तु चेष्टासमय एव घटो घटशब्दवाच्यः अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । तदेवमभिन्नार्थो वाच्योSस्येत्यभिन्नार्थो घटशब्द इति मन्यते । । ३० ।।
[ भेद - अर्थपर्याय-अभिन्न आदि पद- परामर्श ]
प्रश्न :- यदि तीनों नयों को द्रव्यात्मक अर्थ मान्य हैं तो उसे 'पर्याय' (अर्थपर्याय) कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर :- अवतरणिका में पर्यायार्थिक विषयभूत भेद ( विभाग ) का द्वैविध्य ३० वीं गाथा में कहने का निवेदन किया है। मतलब कि मुख्य रूप से इस गाथा में पर्याय के ही भेद दिखाने का है । उन में पहला अर्थ पर्याय है, दूसरा शब्दनयमान्य व्यञ्जन पर्याय है । शब्दनय मान्य पर्याय का मतलब होगा कि शाब्दबोध में जो शब्दानुसारी विषय ज्ञात होंगे वे व्यञ्जनपर्याय हैं और शाब्दभिन्नमति आदि बोध में जो विषय ज्ञात होंगे वे अर्थपर्याय कहें जायेंगे। ( ये दोनों भेद पर्यायार्थिक के हैं) 15 इस लिये यहाँ पर्याय शब्द का प्रयोग उचित है। तथा 'पर्याय' शब्द से यहाँ क्षणिक और अक्षणिक दोनों प्रकार के पर्याय विवक्षित हैं । ऋजुसूत्र से ले कर शब्दनय तक सभी को क्षणिक पर्याय मान्य हैं संग्रह और व्यवहार को क्षणिक - अक्षणिक दोनों प्रकार के पर्याय मान्य हैं । अतः यहाँ अव० में जो पर्यायार्थिक शब्द है वहाँ पर्याय शब्द से पारिभाषिक ( द्रव्यभिन्न ) पर्याय न ले कर सिर्फ द्रव्य और पारिभाषिक पर्याय साधारण वस्तु ही ग्रहण करना है ।
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प्रश्न :- यद्यपि यहाँ अवतरणिका में पर्यायार्थिक विषयभूत भेद का द्वैविध्य कहने की बात है किन्तु अर्थगत या अर्थपर्याय को तीन नय ( संग्रहादि के ) मत में अभिन्न कहा गया है तो यह कैसे ?
उत्तर :- अवतरणिका में जो भेद की बात है वह अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय के भेद की बात है, अर्थपर्यायरूप भेद के प्रस्ताव में जो अभेद (= अविभाग) की बात है वह तो तीनों में परस्पर गौण- मुख्यरूप से मान्य अभिन्नविषयता की बात है । अनेकान्तवाद की यह विशेषता । अस्तु ।
सत् व्यावृत्त आदि विषयक तीन नय उक्तप्रकार से अभिन्न अर्थपर्यायग्राही होने से उन को (बहुसंख्यक नयों को) उद्देश्य कर के विधेयरूप में एक वचन से 'अर्थगतो विभागो अभिन्न:' इस रूप से 'उच्यते' यानी कहा गया है। (जैसे वेदाः प्रमाणम् में कहा जाता है ।)
[ व्यञ्जनपर्याय शब्द- समभिरूढ - एवंभूत नयमान्यता ]
व्यञ्जन विकल्प भजनापात्र है। पहले मूल गाथा में 'विभाग' के लिये 'व्यञ्जन नियत' शब्दप्रयोग 30 है, व्याख्याकार ने 'शब्दनयनिबन्धन' ऐसा व्याख्यान किया है और अब विकल्प' शब्दप्रयोग है। तात्पर्य, शब्दनयमूलक व्यञ्जनपर्यायात्मक भेद पर्यायात्मक भेद में भजना कैसे हैं उस की व्याख्या में स्पष्ट करते
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मूलगाथा के उत्तरार्ध में 'व्यञ्जन की ही बात है । उस व्यञ्जनविकल्पित (यानी अर्थनयमान्य
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