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खण्ड-३, गाथा-३०
३०७ सम्पृक्तमिति दर्शयितुमाह- आरब्धश्च विभागः स एवाऽविभागः सत्तारूपो यो द्रव्यादिनाऽऽकारेण, प्रस्तुतश्च भेदः 'च'शब्दस्य प्रक्रान्ताऽविभागानुकर्षणार्थत्वात् पर्यायवक्तव्यमार्गश्च पर्यायास्तिकस्य यद् वक्तव्यं = विशेषः तस्य मार्गः = पन्थाः जातः - पर्यायार्थिकपरिच्छेद्यस्वभावो विशेषः सम्पन्न इति यावत् ।।२९।। एवं भेदाभेदरूपं वस्तूपदर्श्य भेदस्य पर्यायार्थिकविषयस्य द्वैविध्यमाह
5 (मूलम्-) सो उण समासओ च्चिय वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य।
अत्थगओ य अभिण्णो भइयव्वो वंजणवियप्पो।।३०।। स पुनर्विभागो संक्षेपतो व्यञ्जननियतः = शब्दनयनिबन्धनः अर्थनियतश्च = अर्थनयनिबन्धनश्च । तत्र अर्थगतस्तु विभाग: अभिन्नः संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रार्थप्रधाननयविषयोऽर्थपर्यायोऽभिन्न असदद्रव्यातीसब सभी प्रकार से हरहमेश अभिन्न (= अविकल्प) होती है, क्योंकि अविशेषतः वह 'सत्' रूप होती 10 है। वही वस्तु अपेक्षाभेद से भेद का भी स्पर्श करती है यह दिखाने के लिये ग्रन्थकार मूल गाथा उत्तरार्ध में कहते हैं - 'आरब्धश्च विभागः'। भावार्थ यह है कि जो द्रव्यादि आकार से भेदरूप प्रस्तुत होता है वही निर्विभाग सत्तारूप होता है। यहाँ गाथा में 'च' अव्ययशब्द प्रकरणप्राप्त अविभाग की अनुवृत्ति करने के लिये प्रयुक्त है अतः जो द्रव्यादिरूप से भेदात्मक है वही अविभाग सत्तारूप है ऐसा अन्वय समझना। वह भेद पर्यायास्तिकनय का वाच्य जो विशेष है उस का मार्ग बन जाता 15 है। तात्पर्य, वह सत्तारूप निर्विभाग वस्तु भेदसम्बन्ध होने पर पर्यायार्थिकनयगम्य विशेषात्मक स्वभावरूप हो जाता है ।।२९।।
[नय भेद से अर्थनियत-व्यञ्जननियत विभाग ] अवतरणिका :- वस्तु भेदाभेद उभयरूप प्रदर्शित कर के अब भेद, जो कि पर्यायार्थिक का विषय है उस के दो प्रकार कहते हैं -
गाथार्थ :- वह तो (यानी विभाग) संक्षेपतः शब्दनियत और अर्थनियत होता है। (उन में से) अर्थसम्बन्धी (विभाग) अभिन्न होता है और शब्दविकल्प भजनापात्र है।।३०।।
__ व्याख्यार्थ :- पूर्व गाथा में जो विभाग-कथन किया है - वह संक्षेप से द्विविध १, व्यञ्जन नियत यानी अर्थनयमूलक । २, दूसरा जो अर्थनियत विभाग है वह अभिन्न होता है। क्या मतलब ? संग्रह-व्यवहार-ऋजूसूत्र ये तीन नय अर्थाधीन होते हैं, शब्द चाहे कोई भी हो, अथवा शब्द की यहाँ 25 अधीनता नहीं होती। अतः संग्रहादि तीन को अर्थनय कहते हैं, अर्थ प्रधान अभिधेय या विषय होने से। अर्थनयविषयभूत अर्थपर्याय ‘अभिन्न' होता है। क्या मतलब ? उक्त तीन नयों के विषय असद्व्यावृत्त, अद्रव्यव्यावृत्त एवं अतीतानागतव्यावृत्त हैं, इस प्रकार से इस अर्थपर्यायरूप विषय में अभिन्नता है। कैसे ? तीनों का विषय कथंचित् एकरूप ही है। खास कर के जो ऋजुसूत्र का क्षणिक अर्थपर्याय है वह पूर्व दो नयों को मान्य ही है। द्रव्य भी क्षणिक या अक्षणिक, तीनों नयों को मान्य है। 30 तीनों नयों को 'सत्' पदार्थ यानी अर्थ पर्याय मान्य हैं।
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