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खण्ड-३, गाथा-३१
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यत् तदन्यतो विभक्तेन स्वरूपेणैकमनेकं च वस्तूक्तम् तदनन्तप्रमाणम् इत्याख्यातुमाह(मूलम्-) एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपज्जया वा वि।
तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ।।३१।। एकस्मिन् जीवादिद्रव्ये अर्थपर्यायाः = अर्थग्राहकाः संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राख्या: तद्ग्राह्या वाऽर्थभेदाः वचनपर्यायाः शब्द-समभिरूढ-एवंभूताः तत्परिच्छेद्या वस्त्वंशा वा ते च अतीतानागतवर्त्तमानरूपतया सर्वदा 5 विवर्त्तन्ते विवृत्ताः विवर्तिष्यन्ते इति तेषामानन्त्याद् वस्त्वपि तावत्प्रमाणं भवति । तथाहि- अनन्तकालेन सर्वेण वस्तुना सर्वावस्थानां परस्परानुगमेनाऽऽसादितत्वात् अवस्थातुश्चावस्थानां कथंचिदनन्यत्वाद् घटादि वस्तु पट-पुरुषादिरूपेणापि कथंचिद् विवृत्तमिति ‘सर्वं सर्वात्मकं कथंचिद्' इति स्थितम्। दृश्यते चैकं अर्थपर्याय से भिन्न) शब्दपर्याय भिन्न भी है अभिन्न भी है। क्या मतलब ? अनेकनाम अर्थ एक (जैसे अमर कोश, अभिधान चिन्तामणि आदि) तथा एक नाम एक अर्थ (ऐसा कोई कोश ध्यान में नहीं 10 - व्युत्पत्तिकोश हो सकता है, एक नाम अनेक अर्थ ऐसा ‘अनेकार्थकोश' मिलता है।)
पहला जो पक्ष है उस में उदा०-घट कुट कुम्भ ऐसे नाम अनेक है किन्तु एकार्थक है - यहाँ सभी का लिङ्ग एक है, संख्या (एकवचनगम्य) भी समान है और तीनों शब्दों में कालकृत भेद नहीं है। अतः शब्दनयमान्य है। दूसरा पक्ष :- समभिरूढ नय कहता है - घट-कुट (और कुम्भ) शब्द भिन्नार्थक हैं क्योंकि दोनों का व्युत्पत्ति-अर्थ यानी व्युत्पत्तिनिमित्त (घटत्व-कुटत्व) भिन्न हैं जैसे रूप और 15 रस आदि शब्द। यहाँ एक नाम एक अर्थ माना जाता है। एवंभूत नय तो आगे बढ कर कहता है - घट जब निश्चेष्ट = निष्क्रिय है स्त्रीमस्तकारूढ हो कर उछलता नहीं तब वह 'घट' शब्द का अर्थ नहीं बन सकता। फिर भी माना जाय तो चेष्टारहित कलेवर आदि सभी के लिये ‘घट' शब्दप्रयोग की आपत्ति होगी। मतलब, इस नय से ‘घट' शब्द 'अभिन्नार्थ' है, अभिन्न (= एक मात्र प्रवृत्तिनिमित्तान्वित ही) है अर्थ जिस का - ऐसा विग्रहार्थ समझ लेना ।।३०।।
[ अतीतादिपर्यायों से एकद्रव्य की अनन्तता ] अवतरणिका :- वह जो अन्यप्रयुक्त विभागगर्भित स्वरूप से वस्तु में एक-अनेक भाव का कथन किया, उस का प्रमाण कितना ? अनन्त। इस तथ्य का निरूपण करते हैं ३२ वीं गाथा में
___ गाथार्थ :- एक द्रव्य में जो अर्थपर्याय और वचनपर्याय अतीत-अनागत-वर्तमानभूत होते हैं इतने प्रमाणवाला एक द्रव्य होता है ।।३१।।।
25 ___ व्याख्यार्थ :- जीवादि एक द्रव्य में रहनेवाले जो अर्थपर्याय, मतलब अर्थग्राही संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रनय अथवा इन नयों के जो विषयभूत अर्थप्रकार, एवं शब्द-समभिरूढ-एवंभूत नय अथवा उन के विषयभुत वस्तु-अंश, ये सब कभी भूतकालीन हो जाते हैं, कभी भाविकालीन रहते हैं तो कभी वर्तमानकालीन, ऐसे तीन काल से ग्रस्त रहते हुए वे हरहमेश चलते रहते हैं, चलते रहे हैं और चलते रहेंगे - इस प्रकार कालसम्बन्धितया वे नय अथवा वस्तुअंश अनन्त होने से कोई एक वस्तु भी अनन्तविध 30 होती है क्योंकि उन की कालकृत विशेषताएँ भी अनन्त होती हैं। कैसे यह देखिये - अनन्त भूतकाल
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