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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ प्रकाश्यते' इति वक्तव्यम्, मोक्षाभावप्रसक्तेरेव। यतो न नित्यैकरूपब्रह्मण्यविद्यात्मके स्थिते तदात्मकाऽविद्याव्यपगमः कुतश्चित् सम्भवी येनाविद्याव्युपरतेर्मुक्तिर्भवेत्। न च तद्व्यतिरेकवदविद्याङ्गीकरणेऽप्यविद्याप्रकाशात् (? द्यावशात्) तस्य तथाप्रकाशनं युक्तिसंगतम्, नित्यत्वादनाधेयातिशये ब्रह्मणि तस्या
अकिञ्चित्करत्वात्, अत एव तस्य तयाऽसम्बन्धात् संसाराभावप्रसक्तिश्च । न च सा तत्त्वाऽन्यत्वाभ्याम5 निर्वचनीयेति वक्तव्यम् वस्तुधर्मस्य गत्यन्तराभावात्। न चाऽवस्तुत्वमेव तस्याः, तथात्वे तस्या तथाख्यात्ययोगादतिप्रसंगात्। न च तथाभूतार्थक्रियाकारिण्यास्तस्या 'वस्तु' इति नामकरणे कश्चिद् विवादः।
अस्मन्मते तु तथाभूताऽभिनिवेशवासनैवाऽविद्या । वासना च कारणात्मिका शक्तिरिति पूर्वपूर्वकरणभूतादविद्यात्मकज्ञानादुत्तरोत्तरज्ञानकार्यस्य वितथाकाराभिनिवेशिन उत्पत्तेरेवाविद्यावशात् तथाख्यातिरित्युच्यते ।
तस्याश्च योगाद्यभ्यासादसमर्थतरतमक्षणोदयक्रमतः प्रच्युतेः शुद्धतरसंवित्सन्तानप्रादुर्भावात् मुक्तिप्राप्तिरित्युत्पन्नव 10 बन्ध-मोक्षव्यवस्थितिः। नित्यैकरूपे च ब्रह्मणि अवस्थाद्वयाऽयोगात् न संसाराऽपवर्गो भवन्मते सम्भवतः ।
तब आप का कहना उचित होगा कि 'अविद्या के कारण वहा ब्रह्म विविधाकार भासित होता है।' यदि कहें कि - ‘अविद्या के कारण ब्रह्म विविधाकार ज्ञात होता है इस विधान से आप समझ जाओ कि ब्रह्म का अविद्यात्मकत्व ही प्रकट होता है' - तो ऐसा नहीं बोलना, क्योंकि तब मोक्षप्राप्ति का
सम्भव ही नहीं रहेगा। कारण, अखंड नित्य ब्रह्म यदि अविद्यात्मक है तो अविनाशी ब्रह्मात्मक होने 15 से अविद्या का किसी भी उपाय से नाश ही सम्भव नहीं होगा जिस से कि अविद्याह्रासरूप मोक्ष
हो सके। अविद्या को ब्रह्मभिन्न स्वीकार ले, फिर भी पृथक् अविद्या के कारण ब्रह्म का विविधाकार स्फुरण मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ब्रह्म नित्य होने से उस में किसी विकारस्वरूप अतिशय का आधान शक्य न होने से, पृथक् अविद्या अकिञ्चित्कर ही पडी रहेगी, अत एव उस का ब्रह्म
से कोई तादात्म्यादि सम्बन्ध न घटने से संसार का भी लोप प्रसक्त होगा। ऐसा मत कहना कि - 20 ‘अविद्या भिन्न है या अभिन्न, सत् है या असत् किसी भी प्रकार से निर्वचनीय नहीं है (अतः भेद
अभेद पक्ष में जो मोक्षाभाव-संसाराभाव दूषण दिये गये हैं वे निरस्त हो गये)' - क्योंकि कोई भी वस्तु या उस का धर्म तद्रूप होगा या अतद्रूप होगा, तीसरा कोई अनिर्वचनीयादि प्रकार ही नहीं है। यदि अविद्या को अवस्तु ही मानेंगे तो उस की जो ऐसी ख्याति है कि उस के प्रभाव से ब्रह्म
विविधाकार भासित होता है वह घट नहीं सकता, क्योंकि फिर तो ब्रह्म तत्त्व की सत्ता में भी उस 25 का प्रभाव मानना पडेगा। ब्रह्म के विविधाकार में प्रदर्शन रूप अर्थक्रिया करनेवाली अविद्या का यदि 'वस्तु' ऐसा नामकरण किया जाय तो कोई विवाद नहीं रहता। (क्योंकि वह नाम सार्थक ही है।)
[पर्यायास्तिकनय से बन्ध-मोक्ष की उपपत्ति ] हमारे पर्यायास्तिक मत के अनुसार :- क्षणिक ज्ञानान्तर्गत मिथ्यात्वादि अभिनिवेशगर्भित वासना का ही दूसरा नाम अविद्या है। वासना का तात्पर्य है अन्तर्निहित कारणात्मक शक्ति । पूर्व-पूर्व कारणस्वरूप 30 अविद्याअभिन्न ज्ञान क्षणों से उत्तरोत्तर ज्ञानक्षणात्मक कार्यों मिथ्याभिनिवेशगर्भित उत्पत्ति को ही हम
कहते हैं अविद्यामूलक तथाख्याति । उस अविद्या का ह्रास होता है योगादिअभ्यासमूलक असमर्थ-असमर्थतरअसमर्थतम ज्ञानक्षणों के क्रमिक उदय से। तब शुद्ध शुद्धतर शुद्धतम संवेदनपरम्परा के प्रादुर्भाव से
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