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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ कुण्डलाद्यवच्छिन्नस्य देवदत्तादेरिव । न च देवदत्तादेः सहभाव्यनेकविशेषणावच्छिन्नत्वादेकत्वम् तदभावनियतभावलक्षणस्य विरोधस्य सहसम्भविनामपि भावात्, ततो विरुद्धावच्छिन्नस्य नानात्वे देवदत्तस्यापि नानात्वप्रसक्तिः । न च देवदत्तादेरेकस्य कस्यचिदभावात् तन्नानात्वप्रसक्तिः न सौगतपक्षे दोषायेति वाच्यम्, एकप्रतिभासबलात् देवदत्तादेरेकत्वसिद्धेः, अन्यथा नीलसंवेदनस्यापि स्थूलाकारावभासिनो विरुद्धदिक्सम्बन्धात् प्रतिपरमाणुभेदप्रसक्तेः तदवयवानामपि षट्कयोगाद् भेदापत्तितोऽनवस्थाप्रसक्तेः प्रतिभासविरतिलक्षणाऽप्रामाणिका शून्यता भवेत्इति सर्वव्यवहारविलोपः। न च छत्रकुण्डलादेरिन्द्रियावसेयवस्तुव्यवच्छेदकत्वेन इन्द्रियजप्रतिपत्तिविषयता संनिहितत्वेन युक्ता, पूर्वापरादित्वस्य तु वर्तमानकालावच्छिन्ने वस्तुन्यसंनिधानात् कथं तद्ग्राहिज्ञानग्राह्यता युक्तेति वक्तव्यम्, यतो यथाऽन्त्यसंख्येयकाले पूर्वसंख्येयानामसंनिधानेऽपि इन्द्रियजप्रतिपत्तिविषयता तथा पूर्वापरकालभाविताया अपीत्युक्तं प्राक् ।
[ छत्र-कुण्डलादि के दृष्टान्त से पूर्वापरकालीन में एकत्व-समाधान ] उत्तर :- शंका गलत है - एकत्वरूप से निश्चयारूढ घटादि भावों में परस्पर विरुद्धकालादिव्यवच्छेद के जरिये भिन्नता का आपादन करना युक्तियुक्त नहीं, जैसे एक निश्चित देवदत्तादि में छत्रधारण, कुण्डलधारणादि अवस्थाभेद से भेद नहीं हो सकता। शंका :- देवदत्तादि में विशेषणभूत जो छत्र-कुण्डलादि
हैं वे सहभावी हैं सहभावी विशेषणों से विशिष्ट देवदत्त में एकत्व हो सकता है। उत्तर :- नहीं, 15 जब आपने स्व-अभाव से नियत भाव स्वरूप विरोध लक्षित किया है तब वह तो सहभावी में भी
माना जा सकता है। अतः विरुद्ध छत्रादि धर्म विशिष्ट में भेद होने से देवदत्त में भी भेद मानना पडेगा। शंका :- इष्टापत्ति है, हम तो स्थिर एक देवदत्तादि का स्वीकार नहीं करते हैं, अतः उस में भेद का आपादन हमारे बौद्धमत में दोषकारक नहीं है। उत्तर :- दोष क्यों नहीं ? जब कि एकत्व
अवबोध से देवदत्तादि में एकत्व सिद्ध है। अन्यथा, नीलसंवेदन में स्थलाकार भासित होनेवाले पदार्थ 20 में विरुद्ध षट् दिक् (विरुद्धकाल की तरह विरुद्ध दिशा) के संयोग से उस में भी प्रति परमाणु
भेद प्रसक्त होगा (इस में तो बौद्ध को आपत्ति नहीं किन्तु) फिर परमाणु (स्वलक्षण) में भी षड् दिशा संयोग से पुनः पुनः उन के अवयवविभागों में भेदापत्ति के कारण अनवस्था दोष प्रसक्त रहेगा। फिर एक भी भाव का प्रतिभास न हो सकने से शुन्यता प्रसक्त होगी जो कि प्रामाणिक नहीं है। फलतः पूरे लोकव्यवहार का विलोप ही प्रसक्त होगा।
शंका :- छत्र-कुण्डलादि जरूर (पूर्वापरकाल की तरह) इन्द्रियगम्य वस्तु के व्यवच्छेदक (विशेषणरूप) हैं, किन्तु वे देवदत्तादि वस्तु में संनिहित हैं – सम्बद्ध हैं अतः वे इन्द्रियजन्यप्रतीतिविषय एक साथ होने में कोई अनौचित्य नहीं। प्रस्तुत वर्तमानकालीन घटादि में विशेषणरूप माने गये पूर्वापरकालीनता वर्तमान घटादि में संनिहित न होने से उन में घटादिग्राहकज्ञानविषयता (यानी घटादि विशेषणरूप में पूर्वापरकाल की प्रतीति) कैसे उचित हो सकती है ?
उत्तर :- इस तरह उचित है कि जैसे चरमसंख्येयकाल में पूर्व-पूर्व संख्येयों का सांनिध्य न होने पर भी उन में चरमसंख्येयज्ञानजनकइन्द्रियजन्यज्ञानविषयता सर्वमान्य है, तो ऐसे घटादि में असंनिहित पूर्वापरकालीनता में भी इन्द्रियजन्यप्रतीतिविषयता भी हो सकती है - यह अभी अचिरपूर्व में कह आये हैं।
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