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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ अप्रतिघाते च यथा कार्य कारणाभ्यन्तरप्रविष्टत्वात् तेन आवृतमिति नोपलभ्यते तथा कारणस्यानुपलब्धिप्रसङ्गः अप्रतिघातेन तदनुप्रविष्टत्वाविशेषात्। अथान्धकारवत् तद्दर्शनप्रतिबन्धकत्वेन तद् आवारकम्; नन्वेवमदर्शनेऽपि तस्य स्पर्शोपलम्भप्रसङ्गः तस्याप्यभावे तस्याऽसत्त्वमिति तद् आवारकं तत्स्वरूपविनाशकं
प्रसक्तम् । न च पटादेरिव घटादिकं प्रति कारणस्य कार्याऽवारकत्वमिति न स्पर्शोपलब्धिः, पटध्वंसे इव 5 मृत्पिण्डध्वंसे तदावृतकार्योपलब्धिप्रसङ्गात् एकाभिव्यञ्जकव्यापारादेव सर्वव्यङ्ग्योपलब्धिश्च भवेत् एकप्रदीपव्यापारात् तत्सन्निधानव्यवस्थितानेकघटादिवत्।।
किञ्च, कारणकाले कार्यस्य सत्त्वे स्वकाल इव कथमसौ तेनाब्रियते ? नापि मृत्पिण्डकार्यतया पटादिवत् घटो व्यपदिश्येत, असत्त्वे च नावृत्तिः अविद्यमानत्वादेव। एकान्तसत: करणविरोधात् 'असद
करणादिभ्यो (२८२-१८) न सत्कार्यसिद्धिः । प्रतिक्षिप्तश्च प्रागेव सत्कार्यवाद (२९६-८) इति न पुनरुच्यते। 10 मूर्त (कार्य) का अन्तःप्रवेश शक्य नहीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के प्रतिघातकारी है। यदि प्रतिघात
नहीं मानेंगे तो, जैसे: कारणान्तःप्रविष्ट होने से कारण द्वारा आवृत कार्य (पूर्वावस्था में) दृष्टिगोचर नहीं होता, वैसे अप्रतिघात के जरिये कार्यान्तःप्रविष्ट कारण भी कार्यावृत होने से दृष्टिगोचर नहीं होगा, प्रतिघात न होने पर अन्तःप्रवेश तो दोनों का एक-दूसरे में समान है। यदि कहें- 'कारण
अन्धकारतल्य है जो विषयदर्शन का अवरोधक है अतः अन्धकार की तरह (पर्वावस्था में) कारण 15 दिखता है कार्य नहीं।' – अरे तब तो कार्य दृष्टिगोचर न होने पर भी अन्धकार में स्पर्शनगोचर
बनेगा जैसे अन्धकार में घटादि । यदि स्पर्शोपलम्भ का भी आवारक होता, तब तो सर्वथा कार्य का अभाव प्रसक्त होने से वह असत् ठहरेगा और कारण ही कार्य का (आवारक यानी) नाशक बन जायेगा। यदि कहें - जैसेः घटादि के पटादि आवारक होते हैं वैसे कारण कार्य का आवारक बनेगा
अतः स्पर्शोपलम्भ नहीं हो सकता - अहो ! तब, वस्त्रध्वंस होने पर जैसे घटादि-उपलम्भ होता है 20 वैसे मिट्टीपिंडरूप कारणध्वंस होने पर कारणावृत घटादि कार्य का उपलम्भ प्रसक्त होगा। तथा, अन्धकाररूप
आवरण का एक ही प्रदीपव्यापार से ध्वंस हो जाने पर प्रदीपसंनिहित अनेक घटादि दृष्टिगोचर होते हैं वैसे एक ही कार्याभिव्यञ्जक कुम्हार आदि के व्यापार से सर्व अभिव्यज्य कार्यों की उपलब्धि प्रसक्त होगी।
तथा, यदि कारणकाल में कार्य का सत्त्व है तो प्रश्न है कि जैसे कार्यकाल में कारण (मिट्टी) 25 से कार्य (घटादि) का आवरण नहीं होता तो कारणकाल में ही क्यों आवरण होता है ? तथा, अनुपलब्ध
होने पर भी मिट्टीकाल में जैसे मिट्टीपिण्ड का कार्य नहीं कहा जाता, वैसे घटादि भी मिट्टीकाल में अनुपलब्ध होंगे तो वे मिट्टीपिण्ड के कार्य नहीं कहे जा सकेंगे। यदि उस काल में पटादि की तरह घटादि को भी असत् मानेंगे तब तो अविद्यमान होने से वह कारणावृत होने की बात ही नहीं रहती। सारांश,
सांख्यकारिका (गाथा-९ दूसरे खंड में) में असदकरणादि पाँच हेतु से जो ‘सत् कार्य' को सिद्ध करने 30 की चेष्टा किया है वह व्यर्थ है क्योंकि एकान्त सत् कार्य वाद में कार्य का निष्पादन घट नहीं सकता।
पहले भी (२८२-१८) सत्कार्यवाद का प्रतिकार हो चुका है अतः यहाँ अधिक पुनरुक्ति नहीं करते । 7. असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम् (सांख्य कारिका-९)
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