________________
२८४
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१
(२) तेषामेवानेन रूपेण व्यवस्थितत्वात् तदव्यतिरिक्तं विकारमात्रं कार्यं त एव - इति साङ्ख्यविशेष एव।
(३ + ४) 'न कार्य कारणे विद्यते इति तेभ्यस्तत् पृथग्भूतम्' 'नहि कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठते परिणमते वा' इति वैशेषिकादयः। 5 (५) न च कार्यं कारणं वास्ति द्रव्यमात्रमेव तत्त्वम् – इत्यपरः । एवंभूताभिप्रायवन्त एकान्तवादिनो दृष्टान्तस्य साध्यसमतां मन्यन्ते, तान् प्रत्याह(मूलम्-) इहरा समूहसिद्धो परिणामकओ व्व जो जहिं अत्थो ।
ते तं च ण तं तं चेव व त्ति नियमेण मिच्छत्तं ।।२७।। (व्याख्या:-) इतरथा = उक्तप्रकारादन्यथा समूहे रत्नानां सिद्धो = निष्पन्नः परिणामकृतो वा 10 मण्यादिष्वावल्यादि:- क्षीरादिषु दध्यादिर्वा यो यत्र अर्थः ते मण्यादय आवल्यादि *कार्यम् क्षीरं वा दध्यादिकम् तत्र तत्सद्भावात् तस्य तत्परिणामरूपत्वात्। समूहसिद्धः परिणामकृतो वा इति द्वयोरुपादानं
(२) कुछ सांख्यों का मत है कि रत्न ही उत्तरावस्था में माला रूप से ग्रथित हो जाते हैं जो उस से भिन्न नहीं होते, रत्नावलीरूप कार्यं रत्नों का एक विकार (= परिणाम) ही है जो स्वयं रत्नमय ही हैं ।
(३-४) वैशेषिक-नैयायिक आदि का मत है – कारण में कार्य पहले से विद्यमान नहीं होता, 15 कार्य कारणों से भिन्न ही होता है, कारण कभी कार्यरूप से अवस्थित या परिणत नहीं होता।
(५) न कारण है न कार्य, जो कुछ तत्त्व है वह द्रव्य है – ऐसा भी कुछ लोग मानते हैं।
उक्त प्रकार से विभिन्न अभिप्राय रखनेवाले एकान्तवादी कहते हैं कि 'रत्नावली' का दृष्टान्त भी असिद्ध है, पहले तो उसी की सिद्धि करिये - इस प्रकार दृष्टान्त को साध्यसम दिखानेवाले के प्रति ग्रन्थकार गाथा २७ में कहते है -
गाथार्थ :- अन्यथा (रत्नावली-दृष्टान्त अनुसार अनेकान्त का स्वीकार न किया जाय तो) जहाँ जो अर्थ समुदायसिद्ध अथवा परिणामकृत है - १वे ही यह है या २वे तद्रूप नहीं है अथवा ३वह वही है - इत्यादि (मत) नियमतः मिथ्यात्व हैं।।२७।। __व्याख्यार्थ :- इतरथा यानी ग्रन्थकर्ता ने जिस प्रकार से दृष्टान्त के द्वारा एकान्त निरसन कर
के अनेकान्त स्थापना की है उस से विपरीत यदि ऐसा एकान्त माना जाय कि - मणि आदि में 25 रत्नों के समूह से निष्पन्न जो रत्नावली रूप अर्थ, या क्षीरादिक से परिणामनिष्पन्न जो दहीं आदि
अर्थ, जो जहाँ भी निष्पन्न है - वहाँ वे मणिआदि आवलीकार्यरूप है अथवा क्षीरादि दहीं आदि परिणामरूप है क्योंकि वहाँ मण्यादि-क्षीरादि दहीं आदिपरिणामरूप है क्योंकि वहाँ मण्यादि-क्षीरादि में वह एकान्ततः पहले से विद्यमान है अथवा तो वह कार्य कारण के परिणामरूप है। यहाँ मूल गाथा में समूहसिद्ध
और परिणामकृत इस तरह अलग अलग उल्लेख किया है वह लौकिकव्यवहार का अनुसरणमात्र है, 30 एकान्त अभेदवादी तो कहता है कि वास्तव में तो, सर्व द्रव्य परमाणुओं का पुञ्जात्मक परिणाम ही
4. यथाक्रमं योगः - बृ.ल.मां.टि.। *. समूहः - मां.टि.। ३. परिणाम: मां.टि.। इति टिप्पणीत्रयं भूतपूर्वावृत्तौ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org