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ए = उत्पादादयः सङ्ग्रहतः शिबिकोद्वाहिपुरुषा इव परस्परस्वरूपोपादानेनैव लक्षणम् । प्रत्येकं 5 एकका उत्पादादयो द्वयोरपि द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकयोः अलक्षणम् उक्तवत् तथाभूतविषयाभावे तद्ग्राहकयोरपि तथाभूतयोरभावात्, उत्पादादीनां च परस्परविविक्तरूपाणामसम्भवात् । तस्मात् मिथ्यादृष्टी एव प्रत्येकं परस्परविविक्तौ द्वावपि एतौ द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक-स्वरूपौ मूलनयौ समस्तनयराशिकारणभूतौ ।।१३।।
स्यादेतद्
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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
एते च परस्परसव्यपेक्षा द्रव्यलक्षणम् न स्वतन्त्रा इति प्रदर्शनायाह
( मूलम् - ) एए पुण संगहओ पाडिक्कमलक्खणं दुवेहं पि । तम्हा मिच्छद्दिट्ठी पत्तेयं दो वि मूलणया । । १३ ।।
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भवतु परस्परनिरपेक्षयोर्मिथ्यात्वम् उभयनयारब्धस्त्वेकः सम्यग्दृष्टिर्भविष्यतीत्याह(मूलम् - ) ण य तइओ अत्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं । जे दुवे एगन्ता विभज्जमाणा अणेगन्तो । । १४ ।।
न च तृतीयः परस्परसापेक्षोभयग्राही अस्ति नयः कश्चित् तथाभूतार्थस्यानेकान्ताऽत्मकत्वात् तद्ग्राहिणः [ निरपेक्ष प्रत्येकमूल नय मिथ्यादृष्टि ]
अवतरणिका :- ये उत्पादादि तीन अन्योन्यसापेक्षरूप से मिल कर रहे तो द्रव्य का लक्षण बन 15 सकता है, अन्योन्य पराङ्मुख या स्वतन्त्र रहे तो नहीं इस का प्रदर्शन करते कहते हैं गाथार्थ :- संग्रह से ये ( लक्षण जानना) । अकेले तो दोनों का भी लक्षण नहीं । अतः एक एक दोनों ही मूल नय मिध्यादृष्टि हैं ।। १३ ।।
व्याख्यार्थ :- ये उत्पादादि तीन संगृहीत ( = मिलित) हो कर यानी पालखी के वाहक पुरुषों की तरह परस्पर के स्वरूप का आदर करने पर ही द्रव्य का लक्षण बनेंगे। एक एक उत्पाद या 20 व्यय या स्थिति तो दोनों द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक में से एक का भी लक्षण नहीं हो सकते, जैसे की
पूर्व गाथा के विवेचन में कहा जा चुका है। जब अन्योन्यपराङ्मुख ऐसा कोई विषय (= पदार्थ) ही नहीं, तब उन के ग्राहक भी न कोई स्वतन्त्र द्रव्यास्तिक है न कोई स्वतन्त्र पर्यायास्तिक है । परस्पर निरपेक्षरूपवाले उत्पादादि का सम्भव नहीं । अतः प्रत्येक द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक मूल नय जो कि समस्तनयसमुदाय के उत्थानबिंदु है वे परस्परनिरपेक्ष होंगे तो प्रत्येक ही मिथ्यादृष्टि जान लेना । । १३ ।। [ उभयग्राहि तृतीयनय की कल्पना असत्य ]
प्रश्न : परस्परनिरपेक्ष दो नयों में मिथ्यात्व कहा वह सत्य है, किन्तु उभयनय संयोजनमूलक तीसरा एक नय माना जाय तो वह तो सम्यग्दृष्टि होगा या नहीं ? उत्तर :
गाथार्थ :- तीसरा कोई नय है नहीं। दो में सम्यक्त्व परिपूर्ण है । यतः दोनों एकान्त विशेषतया ( सापेक्षभाव से) गृहीत करने पर अनेकान्त ( बन जाता ) है ।। १४ । ।
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व्याख्यार्थ :- वैसा कोई तीसरा नय नहीं है जो अन्योन्यसापेक्षतया उभयस्पर्शी हो, क्योंकि जो उभयात्मक (द्रव्य-पर्याय अथवा सामान्य- विशेष ) अर्थ तो अनेकान्तात्मक होने से उस का ग्राहक जो
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