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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
संवित्त्यादिभिरनैकान्तिकमित्युपेक्षामर्हति । न हि स्वभावभेदात् अभेदे ग्राह्य-ग्राहक संवित्त्यादेः कालभेदाद् तुफलयोरभेदाभावो युक्तः, कालभेदादपि स्वरूपभेद एव भावानामवसेयः, स्वभावतोऽभिन्नस्य कालभेदादपि भेदाऽयोगात् स्वभावभेदश्चेन्न भेदकः कालभेदो क्वोपयोगी ? इति न तद्भेदात् कार्य-कारणयोरात्यन्तिकभेदसिद्धिः । एवं चांशेन वृत्तिः कार्ये कारणस्योपपन्ना । न च प्रतिक्षणमंशवृत्तौ दृष्टान्ताभावः 5 संवित्तेर्ग्राह्य ग्राहकाकारादेर्दृष्टान्तत्वेन सिद्धत्वात् । अनंशवृत्तिस्तु न क्वचिदर्थस्य प्रमाणसिद्धा या दृष्टान्तत्वेन प्रदर्श्यत, सर्वस्य सांशवृत्तितयोपलब्धेः । ततो नाध्यक्षसिद्धमनुगमस्वरूपं भावानां लक्षणं प्रतिक्षेप्तुं युक्तम्, तत्प्रतिक्षेपे प्रमाणान्तराभावात् । न हि सुखादि - नीलादीनां निरन्वयानां क्वचित् संवेदनमध्यक्षमनुमानं वाऽनुभूयते । नापि तेषां भेदविकलानां कदाचिदप्यनुभूतिरिति यथा संविदाकारमन्तरेण ग्राह्य-ग्राहकाकारयोरसंवित्तेरनुपपत्तिस्तथा तावन्तरेण तस्या अप्यसंवित्तेरनुपपत्तिरिति भेदाऽभेदरूपं सर्वं प्रमाण- प्रमेय10 लक्षणमभ्युपगन्तव्यम् ।
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न च पूर्वापराऽधोमध्योर्ध्वादिभेदाभावेऽनुगताकारलक्षणं सामान्यं तेष्वेकाकारप्रतिभासग्राह्यं सम्भवति, अनुगतिविषयाभावे तदनुगतैकाकारस्याप्यभावात्, तदभावे च तदवृत्तेः सामान्यस्याभाव एव । न च कारण-कार्य में भी भेद होने से अभेदविरह सिद्ध होता है वह कथन उपेक्षापात्र है क्योंकि ग्राह्यग्राहकसंवेदनों में भेद होने पर भी अभेद कैसे होता है वह पहले कहा जा चुका है । ग्राह्य-ग्राहक संवेदनों 15 में स्वभावभेद रहने पर अभेद भले रहे किन्तु हेतु-फल में कालभेद के कारण अभेदाभाव होना चाहिये
यह ठीक नहीं, क्योंकि कालभेद से भी आखिर भावों के स्वरूपभेद पर ही जाना पडेगा । यदि भावों में स्वरूपभेद नहीं होगा तो कालभेद से भी भावभेद नहीं बनेगा । यदि भेदक होगा तो स्वभावभेद, वह यदि भेदक नहीं बनेगा तो कालभेद का उपयोग क्या रहेगा ? मतलब, कालभेद से कार्य-कारण का अत्यन्तभेद सिद्ध नहीं हो सकता । अत एव कारण में कार्य की आंशिक वृत्ति सुघटित है । यदि 20 कहें कि क्षण-क्षण में एक ही भाव की आंशिक वृत्ति होने में कोई दृष्टान्त नहीं है तो यह निषेधार्ह है क्योंकि संवेदन की ग्राह्य ग्राहक आकारों में आंशिक वृत्ति सिद्ध है। किसी भी भाव में किसी धर्म की निरंशवृत्ति प्रमाणसिद्ध नहीं है जिस का दृष्टान्तरूप से आप प्रदर्शन कर सके, सर्वत्र सभी की सांशवृत्ति ही उपलब्धिगोचर होती है । अतः भावों का प्रत्यक्षसिद्ध अनुवृत्तिरूप लक्षण निषेधार्ह नहीं है, क्योंकि निषेध करने के लिये कोई अतिरिक्त प्रमाण नहीं है । निरन्वय (यानी अनुवृत्तिरहित ) भीतरी 25 सुखादि या बाह्य नीलादि भावों का प्रत्यक्ष या अनुमानरूप संवेदन कहीं भी अनुभवसिद्ध नहीं है।
साथ में यह भी ज्ञातव्य है कि सर्वथा व्यावृत्तिरहित भावों की अनुभूति भी कदापि नहीं होती। जैसे संवेदनाकाररहित ग्राह्यं-ग्राहक आकारों का अनुभव नहीं होने से उन की संगतता नहीं हो सकती, वैसे ही उन आकारद्वय (रूपभेदों) के बिना संवेदन का अनुभव भी सिद्ध न होने से संगति नहीं हो सकती । सारांश, सर्व भाव भेदाभेदोभयरूप प्रमाण- प्रमेयलक्षण स्वीकार के काबिल है।
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[ विशेष के बिना सामान्य का असम्भव ]
वस्तु निरंश नहीं होती । पूर्व-पश्चिम, अधो-मध्य-ऊर्ध्व आदि भेद ( अंश) नहीं होगा तो उन में एकाकारप्रतीतिग्राह्य अनुगताकाररूप सामान्य, घट नहीं सकेगा, क्योंकि अनुगम के विषय (आश्रय) पूर्वादि
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